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to श्री श्रावकाचार जी
गाथा-२०१LOO सिद्ध पद की भावना जागती है। वर्तमान पंचमकाल में शरीरादि संहनन द्रव्य, क्षेत्र, ३. चौथी पदवी का श्रद्धान, साधना करता है- पहली पदवी अवती. काल, भाव की अनुकूलता न होने से एकदमछलांग न लगे परंतु नियम संयम के भाव
सम्यक्दृष्टि, दूसरी पदवी व्रती श्रावक,इसी में आर्यिका भी आ जाती हैं, तीसरी पदवी भी न होवें ऐसा नहीं होता।
महाव्रती साधु, इसमें आचार्य उपाध्याय आते हैं, चौथी पदवी सशरीरी केवलज्ञानी जघन्य पात्र अव्रत सम्यक्दृष्टि की अठारह क्रियाओं में पहला सम्यक्त्व सच्चे अरिहन्त और अशरीरी पूर्ण शुद्ध मुक्त सिद्ध पद है। जघन्य पात्र अव्रती सम्यकदृष्टि धर्म का श्रद्धान कैसा होता है उसका वर्णन करते हैं
इस चौथी पदवी का श्रद्धान और साधना करता है, यह उसका लक्ष्य केन्द्र बिंदु है। उपादेय गुण पदवी च, सुद्ध संमिक्त भावना।
इसी के लक्ष्य से फिर यह सब अपने आप होते हैं। जैसे-कोई विद्यार्थी डाक्टर या
इंजीनियर बनना चाहता है, तो पहले वह अपना लक्ष्य निर्धारित करता है फिर उस पदवी चत्वारि सार्थ च, जिन उक्तं सुख दिस्टितं ॥ २०॥
है विषय का अध्ययन करता है। इसी प्रकार अन्तरात्मा जघन्य पात्र का लक्ष्य सिद्ध अन्वयार्थ- (उपादेय गुण पदवी च) गुण और पदवी को उपादेय मानता है परमात्म पद प्राप्त करना है। वह संसारी पद इन्द्र चक्रवर्ती आदि किसी को इष्ट (सुद्ध समिक्त भावना) शुद्ध सम्यक्त्व की भावना रखता ह (पदवा चत्वारि साध उपादेय नहीं मानता, यहाँ तक कि साधु पद को भी इष्ट नहीं मानता। उसका लक्ष्य च) चौथी पदवी की श्रद्धा साधना करता है (जिन उक्तं सुद्ध दिस्टितं) जिनेन्द्र भगवान तो सिद्ध पद ही है, इसके लिये अपनी भूमिका और पात्रतानुसार गुणस्थान क्रम से कहते हैं वह शुद्ध दृष्टि है।
• आगे बढ़ता है। विशेषार्थ- धर्म का सच्चा श्रद्धानी शुद्ध दृष्टि कैसा होता है यह यहाँ बताया इसी बात को योगीन्दुदेव परमात्म प्रकाश में कहते हैंजा रहा है। जो जघन्य पात्र की पहली क्रिया सम्यक्त्व है उसका स्वरूप गाथा २०३
सो पर वुच्चइ लोउ परु जसु मइ तित्थु वसेई। से २२४ तक बताया है। इसे अपने में देखें और अपने आपका निर्णय करें तभी
जहिं मइ तहिं गइ जीवह जि णियमें जेण हवेइ॥ १११॥ सार्थक है। सच्चे धर्म का श्रद्धानी कैसा होता है इसे समझना आवश्यक है।
जिस भव्य जीव की बुद्धि उस निज आत्मस्वरूप में बस रही है अर्थात् १. गुण और पदवी को उपादेय मानता है-'गुण पर्ययवत् द्रव्यम्' गुण विषय-कषाय विकल्प जाल के त्याग से स्वसंवेदन ज्ञानस्वरूप कर स्थिर हो रही और पर्याय के समूह को द्रव्य कहते हैं, प्रत्येक द्रव्य में अपने-अपने अनन्त गुण होते है। वह पुरुष निश्चय कर उत्कृष्ट जन कहा जाता है अर्थात् जिसकी बुद्धि निज हैं, मैं एक अखंड अविनाशी चेतनतत्व भगवान आत्मा जीव द्रव्य हूँ, जिसने ऐसार स्वरूप में ठहर रही है, वह उत्तमजन है; क्योंकि जैसी मति बुद्धि होती है, वैसी ही जान लिया वह अपने विशेष गुणों को प्रगट करने का पुरुषार्थ करता है। आत्मा के जीव की गति निश्चयकर होती है ऐसा जिनवर देव ने कहा है; अर्थात् शुद्धात्म विशेष गुण रत्नत्रय,अनन्तचतुष्टय पंचज्ञान है और सशरीरी अरिहन्त पद,अशरीरी स्वरूप में जिस जीव की बुद्धि होवे उसकी वैसी ही गति होती है। सिद्धपद इनको ही उपादेय मानता है और इनको प्राप्त करने का माध्यम यह तीन र जिन जीवों का मन निज वस्तु में है उनको निज पद की प्राप्ति होती है. इसमें पद अव्रती सम्यकदृष्टि, व्रती श्रावक और महाव्रती साधु पद हैं। इसी क्रम से बढ़ते हुए संदेह नहीं है। अपना उत्कृष्ट सिद्ध पद प्राप्त किया जाता है।
जइणिविसद्ध विकु विकरइ परमप्पा अणुराउ। २. शुद्ध सम्यक्त्व की भावना रखता है- निरंतर अपने ध्रुव तत्व ममल5
अग्गि कणी जिम कडगिरीउहाइ असेस विपाउ॥११४॥ स्वभाव में लीन रहूँ, निरंतर शुद्धोपयोग शुद्धात्मानुभूति होती रहे, विभाव परिणमन जो आधे निमिष मात्र भी कोई परमात्म स्वरूप में प्रीति को करे तो जैसे अग्नि होवे ही नहीं, मैं अपने आत्मीय अतीन्द्रिय आनंद में ही लीन रहूँ, वर्तमान में कर्मोदय की कणी काठ के पहाड को भस्म कर देती है,उसी तरह स्वभाव की प्रीति सब हीX संयोग अपनी पात्रता की कमी के कारण उस दशा में रह नहीं पाता परन्तु इसी की पापों को भस्म कर डालती है। भावना रखता है और कुछ नहीं चाहता।
तो जिसकी जैसी भावना होती है उस रूप उसका कार्य भी होता है। जघन्य
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