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04 श्री आपकाचार जी
गाचा २७३-२७९ l दान के द्वारा भी शुद्धात्मा की भावना कर लेता है। पात्रों को दान देना रत्नत्रय के पात्र अपात्र विसेषत्वं, पन्नग गर्वच उच्यते। पालन में उत्साह बढ़ाने वाला है इसलिये सम्यक दृष्टि निरन्तर पात्र दान देने की
तृण भुक्तं च दुग्धं च,दुग्ध भुक्तं विषं पुनः ॥२७७॥ भावना करता रहता है और जब अवसर पाता है, दान करके अपने द्रव्य और जन्म ५
पात्र दानं च भावेन, मिथ्या दिस्टी व सुद्धये। को सफल मानता है। इसी बात को कार्तिकेयानुपेक्षा में स्वामी कार्तिकेय कहते हैं -
भावना सुद्ध संपून, दानं फलं स्वर्ग गामिनो॥२७८॥ भोयण दाणेण सोक्खं,ओसह दाणेण सत्थदाणंच।
पात्र दान रतो जीवा, संसार दुष्य निपातये। जीवाण अभय दाणं, सुदुलह सव्व दाणे सु ॥३६२॥
कुपात्र दान रतो जीवा, नरयं पतितं ते नरा ।। २७९॥ __ आहार दान से सबको सुख होता है, औषधिदान सहित शास्त्र दान और जीवों !
अन्वयार्थ- (पात्र दानं वट बीज) पात्रों को दिया हुआ दान बीज की तरह को अभयदान सब दानों में दुर्लभ है, उत्तम दान है। आहार दान देने पर तीनों ही दान
3 (धरनी विधंति जेतवा) पृथ्वी में डालने पर अनन्त गुना फलता है (न्यान विधंति दिये हुए हो जाते हैं क्योंकि भूख प्यास नाम के रोग प्राणियों को दिन प्रतिदिन होते हैं।
दानं च) इसी प्रकार ज्ञानी द्वारा दिया हुआ दान बहुत फलता है (दान चिंता सदा भोजन के बल से साधु रात-दिन शास्त्र का अभ्यास एवं अपनी साधना करते हैं। भोजन के देने से प्राणों की भी रक्षा होती है, इस तरह आहारदान में
बुधै) इसलिये बुद्धिमानों को दान करने में उत्साह रखना चाहिये।
(पात्र दान मोष्य मार्गस्य) पात्र दान मोक्षमार्ग की सिद्धि का उपाय है (कुपात्रं औषधि, ज्ञान और अभय दान यह तीनों ही दिये हुए जानना चाहिये, इसलिये आहार
दुर्गति कारन) कुपात्र दान दुर्गति का कारण है (विचारनं भव्य जीवान) भव्य जीवों दान का विशेष महत्व है।
का कर्तव्य है कि वे भले प्रकार विचार कर (पात्र दान रतो सदा) पात्र दान में सदा रत जो पुरुष (श्रावक) इसलोक,परलोक के फल की वांछा से रहित होकर परम भक्ति से संघ के लिये दान देता है,उसने सकल संघको रत्नत्रय में स्थापित किया।
(कुगुरु कुदेव उक्तंच) जो कुपात्र कुगुरु हैं वह कुदेवों की भक्ति मान्यता का उत्तम पात्र विशेष के लिये उत्तम भक्ति से उत्तमदान एक दिन भी दिया हुआ, उत्तम
उपदेश देते हैं और (कुधर्म प्रोक्तं सदा) हमेशा कुधर्म हिंसादि पापारम्भ करने की इन्द्र पद के सुख को प्रदान करता है।
बात कहते हैं (कुलिंगी जिन द्रोही च) चह कुलिंगी जिनद्रोही और (मिथ्या दुर्गति आगे सुपात्र दान की महिमा और कुपात्रदान के दोष बताते हैं
भाजन) मिथ्यात्व सहित दुर्गति के पात्र हैं। पात्र दानं वट वीजं, धरनी विधति जेतवा।
(तस्य दानं च विनयं च) ऐसे कुगुरु को दान देना और उनकी विनय करना न्यान विधति दानं च, दान चिंता सदा बुध ।। २७३॥ (कुन्यानी मूढ दिस्टित) कुज्ञानी और मूढदृष्टिपना है (तस्य दान चितनं येन) जो पात्र दान मोष्य मार्गस्य,कुपात्रं दुर्गति कारनं।
उनको दान देते या दिलाते हैं (संसारे दुष दारुन) वे संसार में दारुण दुःख भोगते हैं। विचारनं भव्य जीवानं, पात्र दान रतो सदा॥२७४।।
(पात्र अपात्र विसेषत्वं) पात्र और अपात्र की विशेषता को (पन्नग गवंच उच्यते)
गाय और सर्पिणी के समान कहा गया है (तृण भक्तं च दुग्धं च) गाय घास खाती है कुगुरू कुदेव उक्तं च, कुधर्म प्रोक्तं सदा।
और दूध देती है (दुग्ध भुक्तं विषं पुनः) सर्पिणी दूध पीती है और विष उगलती है। कुलिंगी जिन द्रोही च,मिथ्या दुर्गति भाजनं ।। २७५ ॥
(पात्र दानं च भावेन) पात्र दान देने और उसकी भावना करने से (मिथ्या तस्य दानं च विनयं च, कुन्यानी मूढ दिस्टितं।
दिस्टी च सुद्धये) मिथ्यादृष्टि भी शुद्ध हो सकता है (भावना सुद्ध संपून ) पूर्ण शुद्ध तस्य दान चिंतनं येन, संसारे दुष दारुनं ॥ २७६ ।।
भावना से (दानं फलं स्वर्ग गामिनं) सत्पात्र को दान देने के फलस्वरूप वह देवगति
जा सकता है। १६८
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