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04 श्री आपकाचार जी
गाथा-२७०-२७२
७ और भविष्य अन्धकार मय बनाता है। सम्यक्दृष्टि अपने पुण्य के उदय का सदुपयोग साधन जुटाना, पुस्तकें आदि देना, सच्चे ज्ञान(सम्यक्ज्ञान) में निमित्त बनना। पात्रों को दान देने में करता है, जिससे धर्म की प्रभावना होती है।
२.आहारदान-तीनों पात्रों को यथायोग्य भक्ति पूर्वक भोजन कराना, इसी बात को और आगे स्पष्ट करते हैं -
. भूखे-प्यासे असहाय दुःखी जीवों को करुणा पूर्वक भोजन कराना, साधर्मीजनों को पात्र दानं च चत्वारि, न्यानं आहार भेषजं ।
* भोजन कराना, यह धर्म की वृद्धि और शरीर की स्थिरता का कारण है। अभयं च भयं नास्ति, दानं पात्र सदा बुधै॥२७॥
३.औषधिदान-पात्रों को रोगग्रस्त जानकर रोग मेटने के लिये औषधिदान .
करना, औषधालय खुलवाना, दवायें बटवाना, रोगियों की सेवा व्यवस्था करना। न्यान दानं च न्यानं च,आहार दान आहारयं।
४.अभयदान-पात्रों को आश्रय देना,निर्भय करना,योग्य स्थान देना, उनके अवर्ष भेषजस्वैव, अभयं अभय दानयं ।। २७१॥
है ऊपर संकट पड़े तो निवारण करना। पात्र दानं च सुच, कर्म विपति सदा बुधै।
दया पूर्वक प्राणीमात्र को चार प्रकार का दान करना, करुणा दान है। सम्यकदृष्टि जे नरा दान चिंतंते,अविरतं संमिक दिस्टितं ॥ २७२॥
ॐ गृहस्थ सदा कृपालु होता है, जगतमात्र का उपकारी होता है, प्राणीमात्र के प्रति
उसके हृदय में दया और प्रेम होता है। दुःखी, भूखे, रोगी, अनपढ़ व आश्रय हीन अन्वयार्थ- (पात्र दानं च चत्वारि) पात्र दान चार प्रकार का होता है - (न्यानं
बिना घरद्वार वालों और भयभीत लोगों को हमेशा चारों प्रकार के दान से संतोषित आहार भेषज) ज्ञानदान, आहारदान, औषधिदान (अभयं च भयं नास्ति) अभयदान,
पान करता है। पशु पक्षी जीव मात्र के प्रति उसे करुणा दया और प्रेम होता है। जिससे भय का विनाश हो जाए (दानं पात्र सदा बुधै) बुद्धिमान सदैव पात्रों को चार
इस प्रकार दान देने दान देने की भावना रखने और दान देने वाले की दान दिया करते हैं।
S अनुमोदना करने से जो दान देते हैं,पात्रों के ज्ञान की वद्धि चाहते हैं.उनको स्वयं (न्यान दानं च न्यानं च) ज्ञानदान करने से ज्ञान की वृद्धि होती है और
IS ज्ञानावरणीय कर्म का विशेष क्षयोपशम होता है। वे यहां भी तथा परलोक में भी (आहार दान आहारयं ) आहार दान से आहार की कमी नहीं रहती है (अवधं
४ज्ञानी होते हैं । जो आहारदान देते हैं वे अटूट पुण्य बांधते हैं.यहां भी कभी भूखे भेषजस्चैव) औषधिदान से शरीर में व्याधि नहीं होती (अभयं अभय दानयं) अभय
नहीं रहते तथा परभव में ऋद्धिधारी देव या धनशाली मानव होते हैं। दान से अभय हो जाते हैं फिर कोई भय नहीं रहता।
औषधिदान करने से ऐसा पुण्य बंधता है,जिससे भविष्य में निरोग सुन्दर शरीर (पात्र दानं च सुद्धं च) शुद्ध और सत्पात्रों को दिया हुआ दान (कर्म
होता है। अभयदान करने से सदा निर्भयता का साधन मिलता है, आश्रय हीन कभी षिपति सदाबुधै) बुद्धिमानों को सदैव कर्मों का क्षय करने वाला होता है (जेनरा दान
९ नहीं होते। वे सुन्दर आवास व रक्षकों के माध्यम के रहते हैं। यहां चार दान देने से चिंतते) जो मनुष्य, दान देते हैं, दान देने वाले की अनुमोदना करते हैं और दान देने
अटूट पुण्य का बंध होता है। की भावना रखते हैं (अविरत संमिक दिस्टितं ) वे अविरत सम्यकदृष्टि सामान्य
जो ज्ञानी वीतराग भाव से दान करते हैं,पात्रों के आत्मीक गुणों में प्रीति रखते गृहस्थ श्रावक है।
हैं,पात्रों की रत्नत्रय की साधना तथा भावना दृढ रहे, ऐसी भावना मन में रखकर विशेषार्थ- पात्र दान चार प्रकार का होता है - ज्ञानदान, आहारदान, दान करते हैं तथा दान देने वालों की अनुमोदना प्रभावना प्रशंसा करते हैं। संसार १ औषधिदान, अभयदान यह ही सच्चे दान हैं, इन दानों का फल इस भव में यशः शरीर भोगों से वैराग्य की भावना भाते हैं. उनके परिणामों में बहुत निर्मलता हो, कीर्ति तथा परभव में सुख समृद्धि सद्गति और मुक्ति की प्राप्ति होती है।
जाती है, जिससे उनके बहुत से पाप कर्म क्षय हो जाते हैं तथा जितना शुभ राग रूप X १.ज्ञानदान-ज्ञान सिखाना,शास्त्र देना,शास्त्र प्रकाशन करवाना, विद्यालय भाव होता है,उससे अतिशयकारी पुण्य का बंध होता है। दान यद्यपि शुभ कार्य है; स्थापना करना, छात्रों को सहायता करना-पढ़ाना लिखाना, पढ़ने वाले को पढ़ने के
परन्तु सम्यक्दृष्टि ज्ञानी गृहस्थ के लिये मोक्षमार्ग रूप हो जाता है, वह ज्ञानी
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