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श्री आवकाचार जी
(पात्र दान रतो जीवा) जो जीव पात्रों को दान देने में रत रहते हैं (संसार दुष्य निपातये) वह संसार के दुःखों से छूट जाते हैं (कुपात्र दान रतो जीवा) जो जीव कुपात्रों को दान देने में रत रहते हैं (नरयं पतितं ते नरा) वे मनुष्य नरक में जाते हैं । विशेषार्थ जैसे बट वृक्ष का बीज बहुत छोटा होता है परन्तु पृथ्वी में बोये जाने पर बड़ा भारी वृक्ष होकर फलता है, इसी प्रकार पात्रों को दिया हुआ दान बहुत भारी फल देता है। अधिक धन होने से लोभ और मान कषाय बढ़ती है। विषय-भोगों में लगाने से वह दुर्गति का कारण बनता है; इसलिये विवेकवान ज्ञानी उसका सदुपयोग दान करने में करते हैं, जिससे स्व-पर का कल्याण होता है।
सत्पात्रों को दान देने से मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है और कुपात्रों को दान देने से दुर्गति का कारण बनता है इसलिये भव्य जीवों को विवेक पूर्वक विचार कर पात्र, कुपात्र को समझकर दान देना चाहिये। सत्पात्रों का वर्णन किया जा चुका है, इसके विपरीत जो कुपात्र हैं अगर उनमें भी ऐसी ही श्रद्धा भक्ति करेंगे, दान देंगे, उनकी बात मानेंगे,उनके कहे अनुसार चलेंगे तो पुण्य की जगह हिंसादि पाप होंगे, मिथ्यात्व का पोषण होगा जिससे दुर्गति जाना पड़ेगा।
जो कुपात्र अर्थात् मिथ्यादृष्टि अज्ञानी कुगुरु हैं, जिन्होंने बाहर से भेष बना रखा है जो साधु बनकर विपरीत मार्ग पर चलते हैं, कुदेवादि के जाल में फंसाते हैं, मिथ्यात्व का पोषण करते हैं, अपने में महन्तपना मानते हैं, पापारम्भ करते हैं, ऐसे कुलिंगी जिनद्रोही स्वयं तो दुर्गति जाते हैं पर जो इनकी श्रद्धा भक्ति मान्यता करते हैं, विनय पूर्वक दान आदि देते हैं वे भी दारुण दुःख भोगते हैं, दुर्गति के पात्र बनते हैं क्योंकि जो जिनधर्म के विरुद्ध आचरण करते हैं, जिनवाणी को नहीं मानते अपनी मनमानी करते हैं वे पत्थर की नौका के समान हैं। जो आप तो डूबेंगे पर जो उनके साथ लगेंगे उनकी मान्यता करेंगे वे भी उसमें ही डूबेंगे; इसलिये सोच विचार कर दानादि देना तथा मान्यता करना चाहिये क्योंकि पात्र कुपात्र की विशेषता गाय और सर्पिणी जैसी है। जैसे- गाय घास खाती है और दूध देती है और सर्पिणी दूध पीती है और जहर उगलती है, इसी प्रकार सत्पात्र की भावना पवित्र और शुद्ध धर्म की मान्यता होती है, उसके भीतर करुणा पैदा होती है, जिससे सबका भला होता है। कुपात्र दुष्ट कठोर होता है, ऊपर से बड़ा सरल साधु जैसा दिखता है पर भीतर मायाचारी भरी रहती है, जो जीवों को अपने जाल में फंसाता है इसलिये सावधानी और विवेक पूर्वक ही दानादि करना चाहिये ।
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SYA YA YA YES.
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गाथा २८०-२८२
सत्पात्र को दान देने से मिथ्यादृष्टि भी सुलट सकता है, वह भी सद्गति जा सकता है और कुपात्र दान से विवेकवान भी दुर्गति जा सकता है; इसलिये जो जीव सत्पात्रों को दान देने में रत रहते हैं वह संसार के दुःखों से छूट जाते हैं और जो कुपात्रों को दान देने में रत रहते हैं, वह नरकादि दुर्गतियो में जाते हैं।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि इससे तो किसी को दान ही नहीं देना चाहिये क्योंकि अपने को क्या पता कौन सुपात्र है, कौन कुपात्र है, इससे तो वैसे ही अच्छे हैं, व्यर्थ ही दान देकर दुर्गति क्यों जायें ?
इसका समाधान करते हैं कि भाई! दान देना तो हर दशा में लाभकारी है, दान का फल ही संसार में सब प्रकार की सुख समृद्धि मिलना है। प्राप्त द्रव्य का सदुपयोग तो दान करने में करना ही चाहिये। दान से ही गृहस्थ की शोभा है इससे यहाँ भी यश फैलता है और परभव में भी सुख साता के योग मिलते हैं। यहाँ कहने का अभिप्राय यह है कि गलत ढंग से कुगुरु कुपात्रों के जाल से फंसकर कोई गलत काम नहीं करना चाहिये जिससे अपना भी अहित हो तथा अन्य जीवों का भी अहित हो ।
करुणा बुद्धि से आहारादि कराना, धर्मशाला, औषधालय बनवाना, गरीब दुखियों की सेवा सहायता करना यह तो प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य ही है, इसी से धर्म की प्रभावना और पुण्य का संचय होता है परंतु इसके साथ विनय भक्ति श्रद्धा का विवेक पूर्वक उपयोग करना चाहिये। दान देना दुःख और दुर्गति का कारण नहीं है, इसके साथ जो हमारी श्रद्धा भावना मान्यता है वह दुःख दुर्गति का कारण है इसलिये विवेक पूर्वक अपने द्रव्य का और अपनी श्रद्धा भक्ति मान्यता का सदुपयोग करना चाहिये ।
इसी बात को तारण स्वामी आगे की गाथाओं में स्पष्ट करते हैंपात्र दानं च प्रतिपूर्वं प्राप्तं च परमं पदं ।
सुद्ध तत्वं च सार्धं च, न्यान मयं सार्धं धुवं ॥ २८० ॥ पात्रं प्रमोदनं कृत्वा, त्रिलोकं मुद उच्यते । जन जन उत्पाद्यंते, प्रमोदं तत्र उच्यते ॥ २८९ ॥ पात्रस्य अभ्यागतं कृत्वा, त्रिलोकं अभ्यागतं भवे । जत्र जत्र उत्पाद्यंते, तत्र अभ्यागतं भवेत् ॥ २८२ ॥
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