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04 श्री आचकाचार जी
गाथा-२८३-२४५
on पात्रस्य चिंतनं कृत्वा,तस्य चिंता स चिंतये।
चक्रवर्ती आदि होता है, जिससे उसका वहां स्वागत सम्मान होता है.साधर्मी-धर्मात्मा चेतयंति प्राप्तं वृद्धि,पात्र चिंता सदा बुध॥ २८३॥
जीवों का सम्मान बहुमान वास्तव में धर्म का सम्मान बहुमान है और इससे अन्वयार्थ-(पात्र दानं च प्रतिपून) पात्र दान का पूर्ण फल यह है कि (प्राप्त
पुण्यानुबंधी,सातिशय पुण्य का बंध होता है, जो जीव को हर जगह,हर परिस्थिति में:
रक्षा करता है और उसका हर जगह स्वागत सम्मान होता है। यह बात धन्यकुमार ७ च परमं पदं ) परम पद जो मोक्ष उसकी प्राप्ति होती है (सुद्ध तत्वं च साधं च) जो चरित्र से बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि पूर्वभव में उसने भक्ति पूर्वक पात्रदान दिया , अपने शुद्धात्म तत्व की साधना करते हैं और (न्यान मयं साधं धुवं) ज्ञानमयी ध्रुव
(न्यान मय साध धुव) ज्ञानमया ध्रुव था उसका उसे परिणाम उत्कृष्ट रूप में मिला। तत्व को साधते हैं।
C जो गृहस्थ श्रावक निरन्तर यह भावना भाते हैं कि हम अपने जीवन और द्रव्य (पात्रं प्रमोदनं कृत्वा) जो पात्रों को देखकर मन में प्रसन्नता लाते हैं, प्रभावना
है का सदुपयोग धर्म प्रभावना धर्मात्माओं की सेवा करने में करें, उनकी यह भावना करते हैं (त्रिलोकं मुद उच्यते) उन्हें त्रिलोक में प्रसन्नता मिलना कहा गया है (जत्र
याकरण शुभ होती है, जिससे उनकी भावनानुसार सारे कार्य निर्विघ्न सानन्द सम्पन्न होते हैं, जत्र उत्पाद्यते) जहाँ-जहाँ पात्र दानी जीव पैदा होता है (प्रमोदं तत्र उच्यते) वहाँ यहाँ भी यश मिलता है.प्रभावना होती है और भविष्य में भी अतिशयकारी कार्य होते उसको प्रमोद भाव प्राप्त होता है।
हैं तथा उसका जीवन भी निरन्तर सुख शान्ति आनंदमय रहता है,सब प्रकार की (पात्रस्य अभ्यागतं कृत्वा) जो पात्रों का स्वागत करता है (त्रिलोकं अभ्यागतं समद्धि बढ़ती है। पात्र दान की भावना करना, करने वालों की अनुमोदना करना और भवे) उसका त्रिलोक में स्वागत होता है (जत्र जत्र उत्पाद्यते) जहां जहां जाता है.
हमेशा पात्र भावना की भावना रखना अतिशय पुण्यबंध का कारण है इसलिये ज्ञानी पैदा होता है (तत्र अभ्यागतं भवेत्) वहां उसका स्वागत होता है।
सद्गृहस्थों के लिये हमेशा पात्र भावना करने की भावना रखना चाहये। (पात्रस्य चिंतनं कृत्वा) जो गृहस्थ श्रावक निरन्तर पात्रों के लाभ का चिन्तन .
इसके विपरीत कुपात्र, मिथ्यात्व से ग्रसित ढोंगी पाखंडी कुलिंगी कुगुरुओं की किया करते हैं (तस्य चिंता स चिंतये) उनकी भावना शुभ होती है (चेतयंति प्राप्त
प्रभावना करना,उनके सत्संग में रहना दुर्गति का कारण है, इसी बात को आगे की वृद्धि) इस शुभ भावना से वह वृद्धि को प्राप्त होता है (पात्र चिंता सदा बुधै)इसलिये
गाथाओं में कहते हैंबुद्धिमानों को सदैव पात्र दान की भावना करना चाहिये। विशेषार्थ- पात्र दान का फल अंत में मोक्ष की प्राप्ति है,जो पात्रों को भक्ति
कुपात्रं अभ्यागतं कृत्वा, दुर्गति अभ्यागतं भवेत् । पूर्वक दान देते हैं,उनके भीतर रत्नत्रय मयी निजशुद्धात्मा की श्रद्धा दृढ होती है।
सुगति तत्र न दिस्टते, दुर्गतिं च भवे-भवे ॥२८४ ॥ क्योंकि जो अपने शुद्धात्म तत्व की साधना करते हैं, ज्ञानमयी ध्रुवतत्व को साधते : कुपात्रं प्रमोदनं कृत्वा, इन्द्री इत्यादि थावरं । हैं, उनकी महिमा और प्रभावना देखकर धर्म का बहमान जागता है और उस ओर
तिरिय नरय प्रमोद च, कुपात्र दान फलं सदा॥ २८५॥ बढ़ने की भावना होती है। जो पात्रों को अर्थात् त्यागी व्रती साधुओं को देखकर
अन्वयार्थ- (कुपात्र अभ्यागतं कृत्वा) जो कोई कुपात्रों का स्वागत करते हैं प्रसन्न होते हैं,प्रभावना करते हैं, उन्हें त्रिलोक में प्रसन्नता मिलती है, प्रभावना होती है। वह जहाँ-जहाँ भी जाते हैं, पैदा होते हैं वहाँ उनको प्रमोदभाव प्राप्त 5
(दुर्गति अभ्यागतं भवेत्) वे अपने लिये दुर्गति का स्वागत करते हैं (सुगति तत्र न होता है। जो वीतरागी निर्ग्रन्थ ज्ञानी साधुओं का स्वागत करता है सम्मान करता
दिस्टते) फिर उनको सुगति का दर्शन नहीं होता (दुर्गतिंच भवे-भवे) उनको भव-भव
मेंदुर्गति की ही प्राप्ति होती है। है, उसका त्रिलोक में स्वागत होता है क्योंकि यह रत्नत्रय के साधक साधुओं का ?
(कुपात्रं प्रमोदनं कृत्वा) जो कुपात्रों को देखकर आनंद मनाते हैं, उनके सत्संग सम्मान नहीं बल्कि रत्नत्रय मयी निजशुद्धात्मा का ही स्वागत सम्मान करना है। इससे जहाँ-जहाँ भी वह पैदा होता है,वहां उच्च पद का धारी ऋद्धिधारी देव इन्द्र
में संलग्न रहते हैं (इन्द्री इत्यादि थावरं) वे एकेन्द्रिय स्थावरों में जन्मते हैं (तिरिय नरय प्रमोदं च) उनको नरक व तिर्यंच गति का ही आनंद मिलता है (कुपात्र दान