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Our श्री बाचकाचार जी
गाथा-२८६.२८९ फलं सदा) कुपात्र दान का फल हमेशा ऐसा ही होता है।
नहीं है। जो अपनी श्रद्धा से विचलित करे, किसी प्रकार के मिथ्यात्व में फंसावे, विशेषार्थ-जो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र से युक्त भेषी कलिंगी बन्धन में बांधे वह तो प्रत्यक्ष ही कुपात्र है इनसे सावधान रहना चाहिये और विवेक। साधु कुगुरु हैं, उनका स्वागत करना, उनको भक्ति पूर्वक दान देना,उनके सत्संग ५ पूर्वक ही दान देना चाहिये। में रहना,उनके कथनानुसार आचरण करना,यह सब संसार के कारण मिथ्यादर्शन
अव्रत सम्यक्दृष्टि विवेकवान होता है वह पात्रों को ही दान देता है और उस आदि का ही पोषण करना है, जिसका फल कुगति का बन्ध है और इससे भव-भव पात्रदान की क्या विशेषता होती है, यह तारण स्वामी आगे की गाथाओं में कहते हैंमें दुर्गति की ही प्राप्ति होती है, उनको कभी सुगति का दर्शन नहीं होता है; क्योंकि 5 पात्र दानं च सुद्धं च, दात्रं सुद्ध सदा भवेत् । जो जैसे संग में रहेगा उसके ऊपर उसका वैसा ही असर पड़ेगा, उसकी बुद्धि और:
तत्र दानं च मुक्तस्य,सुख दिस्टी सदा मयं ॥ २८६ ॥ भावना भी वैसी ही होगी तथा वैसा ही आचरण करेगा और उसका वैसा ही फल !
पात्र सियां च दात्रस्य, दानदानं च पात्रयं । भोगना पड़ेगा। कुपात्र-सम्यक्दर्शन से रहित भेषधारी द्रव्यलिंगी त्यागी व्रती साधु कहे जाते हैं। इनको देखकर आनंद मानना, इनकी अनुमोदना, प्रभावना करना
दात्र पात्रं च सुद्धं,दानं निर्मलतं सदा ।। २८७॥ मिथ्यात्व की अनुमोदना है। मिथ्यात्व भावों की वासना से, अनन्तानुबंधी कषाय की दात्रं सुख संमिक्तं, पात्रं तत्र प्रमोदनं । तीव्रता से एकेन्द्रिय स्थावर गति का बंध होता है। मिथ्यात्व के समान कोई पाप नहीं
दान पात्रं च सुद्धं च, दानं निर्मलतं सदा ।। २८८॥ है। मिथ्यात्व सहित व्यक्ति को धर्मात्मा मानकर उसके अधर्म की प्रतिष्ठा करनी उसे &
पात्रं जन सुद्धं च, दात्रं प्रमोद कारनं । भी पतित रखना है व आप भी पतित होना है, इससे नरक व तिर्यंच गति जाना पड़ता है अतः विवेकी मानव को पात्र कुपात्र का विचार करके ही उसकी अनुमोदना प्रभावना
पात्र दात्र सुखं च, उक्तं दान जिनागर्म ॥ २८९ ।। करना चाहिये।
अन्वयार्थ- (पात्र दानं च सुद्ध च) पात्र दान में पात्र शुद्ध हो और (दात्रं सुद्ध यहाँ कोई प्रश्न करे कि सम्यकदर्शन सहित साधु सुपात्र है और सम्यकदर्शन सदा भवेत्) दाता शुद्ध हो ऐसा शुभ योग मिले तो (तत्र दानं च मुक्तस्य) ऐसा दान रहित साधु कुपात्र है इसकी पहिचान करना कि कौन सम्यक्दृष्टि है, कौन मिथ्यादृष्टि मुक्ति का कारण बनता है (सुद्ध दिस्टी सदा मयं) जहाँ दाता और पात्र दोनों ही शुद्ध है यह तो बड़ी कठिन समस्या है ऐसी स्थिति में समान्य जनों को क्या करना चाहिये? दृष्टि हों जो सदा उसी मय रहते हों।
इसका समाधान करते हैं कि यह बात तो ठीक है कि इसकी पहिचान निर्णय (पात्र सिष्यां च दात्रस्य) उत्तम पात्र, दाता को शिक्षा ज्ञान दान देते हैं और करना मुश्किल है कि कौन सम्यक्दृष्टि कौन मिथ्यादृष्टि है पर सामान्य व्यवहार मेंS (दात्र दानं च पात्रयं) दाता, पात्रों को आहार आदि दान देते हैं (दात्र पात्रं च सुद्ध) साधु के गुण लक्षण आचरण और चर्चा से यह बात समझ में आ जाती है,उसके जहां दाता और पात्र दोनों शुद्ध हों (दानं निर्मलतं सदा) ऐसा दान हमेशा निर्मल शुभ अनुसार व्यवहार करना चाहिये । प्रमुख बात यह है कि किसी को गुरु मानकर और अतिशयकारी होता है। समर्पित हो जाना, इसमें बड़े विवेक की आवश्यकता है क्योंकि उसमें श्रद्धा भक्ति (दात्रं सुद्ध समिक्तं) जहां दाताशुद्ध सम्यक्दृष्टि हो (पात्रं तत्र प्रमोदनं) इससे की विशेषता रहती है और श्रद्धा भक्ति पूर्वक समर्पण ही पात्र की अपेक्षा सद्गति पात्र को बड़ी खुशी होती है और वह उसकी अनुमोदना और प्रमोद भाव रखता है दुर्गति का पात्र बनाता है। सामान्य व्यवहार अपेक्षा आहार औषधि आदि दान देना (दात्र पात्रं च सुद्धं च) जहां दाता और पात्र दोनों उत्तम शुद्ध होते हैं (दानं निर्मलतं, पुण्य बन्ध का ही कारण है, उसमें प्राणी मात्र के प्रति करुणा बुद्धि से दान दिया जा सदा) ऐसा दान हमेशा ही प्रशंसनीय और निर्मल होता है। सकता है इसमें जाति-पांति भेष, पर्याय आदि का भी प्रयोजन नहीं है।
(पात्रं जत्र सुद्धं च) जहां पात्र उत्तम अर्थात् सुद्ध सम्यकदृष्टि होता है और यहाँ पात्र कुपात्र की विशेषता श्रद्धा भक्ति समर्पण से है,सामान्य व्यवहार से (दात्रं प्रमोद कारनं) दाता के लिये इससे बड़ी खुशी प्रमोद भावना होती है (पात्र दात्र
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