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________________ PO4 श्री श्रावकाचार जी कर्म संसार में रुलाने वाले दुःख देने वाले नरक और तिथंच गति ले जाने वाले संचित) व्यसन तो अधर्म में ही रत रहना है (जे नरा भावं तिस्टते) जो मनुष्य इनके ४ तथा शुभ भाव और शुभ क्रिया दया, दान, व्रत, नियम, संयम, पूजन, भावों में लगे रहते हैं अर्थात विकथा और व्यसनों में ही रत रहते हैं (दुष दारुनं पुन: ५ भजन आदि पुण्य शुभकर्म संसार में संसारी सुख देवगति, मनुष्य गति के पुनः) वे बार-बार दारुण दुःख भोगते हैं। कारण हैं। यह दोनों पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ कर्म संसार के ही कारण हैं, यह विशेषार्थ- यहाँ अधर्म का वर्णन चल रहा है। संसाराशक्त बहिरात्मा कुदेवादि कोई भी धर्म नहीं है, अधर्म ही हैं। की मान्यता पूजा, कुगुरु की वंदना भक्ति करता है और अधर्म में रत रहता है। इसलिये धर्म तो एकमात्र चैतन्यमयी शब स्वभाव ही अपना सत्य धर्म है। पर अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। स्वभाव से सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा का शुद्ध स्वभाव उसका अपना धर्म है। उससे भी न मेरा कोई संबंध है और ६ परमब्रह्म परमात्मा है परंतु अपने आपको भूला हुआ पुद्गलशरीरादि को ही देख रहा है न उससे मेरा भला होने वाला। जैसे- एक चेतन जीव द्रव्य है और पुदगल' और इनके पीछे ही यह कुकर्म करके स्वयं संसार में रुल रहा है, दु:ख भोग रहा है। यहाँ अचेतन द्रव्य है तो एक जीव से पुद्गल तो भिन्न है ही, परंतु दूसरा चेतन अधर्म की जड़ विकथा है यह बताया जा रहा है और इसके साथ सातव्यसन तो अधर्म जीव भी अचेतनवत् भिन्न है। ऐसे ही वस्तु स्वभाव तो धर्म है परन्तु मेरा चैतन्य लक्षण निज शब स्वभाव ही मेरा धर्म है। शेष सभी पर द्रव्य, पर जीव व्यसन-बुरी आदत या लत को व्यसन कहते हैं। किसी चीज का नशा लग के शुद्धस्वभाव भी मेरे लिये अचेतनवत् भिन्न हैं। ऐसा निर्णय,ऐसीस्वीकारता जाना, बार-बार उसे ही करने के भाव होना तथा वैसी क्रिया करना व्यसन कहलाता हीधर्म की सच्ची स्वीकारता है। इसी से कल्याण होता है,यह है जैन दर्शन है। व्यसन सात होते हैं-१. जुआँ खेलना, २. माँस खाना, ३. शराब पीना, का मूल आधार, स्वतंत्रता की घोषणा, जिनेन्द्र परमात्मा की देशना जो इसे ४. वेश्या सेवन करना.५.शिकार खेलना, ६. चोरी करना,७. परस्त्री रमण करना। स्वीकार करता है, इस अनुसार चलता है वह जिनेन्द्र का उपासक, धर्म 5 जुआं खेलना मांस मद, वेश्या व्यसन शिकार। श्रद्धानी, व्रतधारी, मोक्षमार्गी है। जो इसके विपरीत है वह चोर है,व्रतधारी चोरी परस्त्री रमण, सातों व्यसन निवार । हो या महाव्रतधारी हो परन्तु उससे आत्म कल्याण होने वाला नहीं है। वह यह व्यसन महा दु:खदाई होते हैं। वर्तमान जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं संसार में ही रुलता रहेगा। धर्म को धर्म जानो, कर्म को कर्म मानो,यही सत्य और भविष्य में दुर्गति दुःख दाता होते हैं। जिन बुरी आदतों में मनुष्य आसक्त हो की स्वीकारता कल्याण का कारण है। जावे तथा जिनके सेवन से इस लोक में धन हानि, यश हानि, शरीर हानि और धर्म इसलिये संसार में पर वस्तु की चोरी आदि पाप तो दुःख और दुर्गति के र दुगात क हानि उठाना पड़े तथा तीव्र पाप बांध कर नरक आदि के दुःख उठाना पड़े तथा एक कारण हैं ही, उन्हें छोड़कर यदि धर्म के नाम पर चोरी करते हैं तो यह तो आत्मा का ८ बार नहीं। बार नहीं, बार-बार दु:खों को भोगने वाली पर्यायों में जन्म-मरण करना पड़े ऐसे ही घात करना है। धर्म रत्न का लोप करने से अनन्त संसार में भटकना पड़ेगा। विकथा और व्यसनों से आत्म कल्याणार्थी को दूर रहना चाहिये, बचना चाहिये। पापों का परित्याग कर सही धर्म मार्ग पर चलें तो कल्याण होगा। इन सात व्यसनों के सेवन करने से क्या दुर्दशा दुर्गति होती है ? उसका अधर्म में आर्त-रौद्र ध्यान, चार विकथा तो मूल आधार हैं। सात व्यसनों में कमशः वर्णन करते हैंर रत रहना तो अधर्म में ही रत रहना है। इसी बात को आगे कहते हैं जुआं व्यसन का परिणाम कहते हैं३. सात व्यसनों का सेवन करना अधर्म है जूआ असुद्ध भावस्य,जोइत अनृतं सुतं । विकहा अधर्म मूलस्य, विसनं अधर्म संचितं । परिणय आरति संजुक्तं,जूआ नरस्य भाजनं ॥ १०८॥ जे नरा भावं तिस्टंते, दुष दारुनं पुनः पुनः ॥१०॥ अन्वयार्थ- (जूआ असुद्ध भावस्य) अशुद्ध भावों को जुआं कहते हैं (जोइतं अन्वयार्थ- (विकहा अधर्म मूलस्य) विकथा अधर्म की जड़ है (विसनं अधर्म
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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