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to श्री श्रावकाचार जी
गाथा-१६७ O r क्रोध से बैर,मान से विरोध,माया से ईया और लोभ से वेष पैदा होता होते हैं। है।क्रोध से प्रीति का नाश होता है। मान से विनय का घात होता है। मायाचार यहाँ विशेष समझने की बात यह है कि लोभ मान माया कषाय न होवें तो से विश्वास जाता रहता है और लोभ से सभी गुण नष्ट हो जाते हैं। क्रोध अंधा , क्रोध हो ही नहीं सकता, इन सब कषायों का मूल आधार, पाप का बाप लोभ ही होता है,मानबहरा होता है,माया गूगी होती है,लोभ नकटा होता है। क्रोध है। पर की तरफ दृष्टि जाने पर सबसे पहले चाह पैदा होती है, जो लोभ का ही ताड़का राक्षसी है, मान सुबाहू राक्षस है, माया मारीचि राक्षस है और लोभ सूक्ष्म रूप है तथा इन कषायों में लोभ,माया राग रूप होते हैं। क्रोध, मान द्वेष रूप रावण लंकेश्वर राक्षस है। शरीर के अहंकार एकत्वपने अपनत्वपने से ही होते हैं और यही राग-द्वेष कर्मबन्ध के कारण संसार के मूल आधार हैं। कषाय होती है। लोभ और माया से मन सक्रिय और जिन्दा रहता है। मनुष्य की अपेक्षा लोभ का मूल आधार धन है और वह धन के कारण ही क्रोध-मन, वचन और काय की क्रिया से काम करते हैं। शारीरिक क्रिया का सारे पाप करता है, धन के कारण ही मान माया क्रोध होते हैं। संसार में धन का ही जितना परिणमन हैयह सब क्रोध कषाय के आधीन ही होता है। कषायों को प्रभुत्व माना जाता है और यह धन ही धर्म का सबसे विरोधी कारण है। जिसको धन क्षय करने,गलाने के लिये शारीरिक संयम तप आवश्यक है।
का प्रभुत्व इष्टता होगी, उसे कभी धर्म की प्रतीति हो ही नहीं सकती इसलिये तारण क्रोध के पैदा होते ही धैर्य का नाश हो जाता है, बुद्धि विवेक का नाश स्वामी ने मनुष्य के जीवन में कषायों का कैसा क्रम है, किस आधार से चलती हो जाता है, शारीरिक स्थिति बेकाबू हो जाती है, अपशब्द बोलने लगता हैं,उस अपेक्षा वर्णन किया है जो अनुभव गम्य प्रामाणिक है। जो जीव अपना आत्म है। मनुष्य को लगी हुई चोट,गोलीका घाव पुरजाता है परन्तु बोलीका घाव कल्याण करना चाहते हैं उन्हें इनसे हमेशा बचना चाहिये। कभी पुरता नहीं है। क्रोध कषाय का उदाहरण-द्वीपायनमुनि हैं, जिन्होंने यहाँ तक बहिरात्मा का स्वरूप और अधर्म का वर्णन किया गया, जिसके द्वारिका को भस्म कर दिया और स्वयं भी भस्म हो गये। क्रोध की अग्नि संसार, कारण यह जीव भगवान आत्मा परम ब्रह्म परमात्मा संसारी बहिरात्मा बना हुआ है, और शरीर का नाश तो करती ही है,यहाँ तक कि आत्मा का पतन,धर्म का इसी संदर्भ की अन्तिम गाथा कहते हैं, नाश भी करती है।
एतत् भावनं कृत्वा, अधर्म तस्य पस्यते । यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह लोभ,मान,माया, क्रोध का उल्टा क्रम क्यों
रागादि मल संजुक्तं, अधर्म सो संगीयते ॥१७॥ बताया है तथा कषाय क्या है, इसको अपनी भाषा में बताइये? उसका समाधान करते हैं कि यही संसार का मूल आधार है, इसके जाने
अन्वयार्थ- (एतत् भावनं कृत्वा) इस प्रकार की भावना करने वाला अर्थात् बिना तो सब व्यर्थ है। कषाय पर पति राग-द्वेष करने को
भी आर्त-रौद्र ध्यान, विकथा, सप्त व्यसन,आठ मद और कषाय भावों में रत रहने अच्छा-बुरा मानना कषाय है। जीव तो एक अखंड अविनाशी ध्रुव तत्व शुद्धात्मा
वाला (अधर्म तस्य पस्यते) ऐसे प्राणी के भीतर अधर्म ही देखा जाता है (रागादि मल ज्ञानानंद स्वभावी है, अरस, अरूपी अस्पर्शी होने से पर पुद्गल तथा पर जीवों से
संजुक्तं ) वह राग-द्वेष आदि मलों में ही लीन रहता है (अधर्म सो संगीयते) यही भी कोई सम्बन्ध नहीं है; और न एक दूसरे को छूता और न कोई किसी का कुछ अधम का
अधर्म का विस्तार है, जो जीव को संसार में रोककर रखता है। करता है परन्तु ज्ञान-दर्शन चेतना और वैभाविक शक्ति होने के कारण जीव पर के विशेषार्थ- यहाँ आत्मा को तीन प्रकार का कहा गया है-परमात्मा, प्रति अर्थात् शरीरादि में एकत्व अपनत्व कर्तृत्व, राग-द्वेष करता है। वैभाविक शक्ति अन्तरात्मा, बहिरात्मा। जो जीव जिन भावों में ठहरा है वह वैसा कहा जाता है। के विपरीत परिणमन को ही कषाय कहते हैं। इसमें कर्मों का निमित्त-नैमित्तिक
जो शब स्वभावमय है वह परमात्मा है, जो भेदज्ञान सहित है वह सम्बन्ध रहता है तथा क्रोध, मान,माया,लोभ यह कषाय के नाम और भेद बताने
अन्तरात्मा है, जिसे अपना बोध नहीं है पुद्गलादि को देख रहा है और संसारी 9 की अपेक्षा बताये जाते हैं; परंतु जीवन में लोभ के कारण ही मान. माया. क्रोध प्रपंच में लगा है, वह बहिरात्मा है।
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