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। तारण की जीवन ज्योति ।
श्री आचकाचार जी
मंगलाचरण देव देवं नमस्कृतं,लोकालोक प्रकासकं । त्रिलोकं भुवनार्थं जोति, उवंकारं च विन्दते॥
अज्ञान तिमिरान्धानां, ज्ञानांजन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः॥ श्री परम गुरवे नमः, परम्पराचार्येभ्यो नमः॥
प्रार्थना गुरू तारण तरण, आये तेरी शरण । हम डूब रहे मझधार, नैया पार करो॥
काल अनादि से डूब रहे हैं।
चारों गति में घूम रहे हैं। भोगे हैं दु:ख अपार....नैया पार करो....गुरू ....
अपने स्वरूप को जाना नहीं है।
तन धन को पर माना नहीं है। करते हैं हा हा कार....नैया पार करो....गुरू ....
हमको आतम ज्ञान करा दो।
सच्चे सुख का भान करा दो । श्रावक कर रहे पुकार....नैया पार करो....गुरू ....
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माँ वीरश्री और तारण की चर्चा माँ- बेटा तारण ! तूने विवाह करने से मना कर दिया, क्या बात है बेटा ? पांडे जी ,
की बच्ची बड़ी सुशील, सुंदर, पढ़ी-लिखी है, भक्तामर, तत्वार्थ सूत्र पढ़ती है,
अच्छे भजन गाती है, मुझे बहुत पसंद है। तारण-माँ ! मुझे विवाह ही नहीं करना, इस संसार बंधन में नहीं फंसना,बच्ची से
कोई प्रयोजन नहीं है। माँ- अरे ! तू इक्कीस वर्ष का पढ़ लिखकर इतना बड़ा हो गया, कहता है विवाह
नहीं करना । बेटा मैंने इसी दिन की आस में तेरे पीछे कितनी मुसीबतें भोगी हैं। कहाँ - कहाँ भटकना पड़ा है ? बेटा बचपन से ही तेरे ऐसे लक्षण हैं, जब तू गर्भ में आया तब मुझे चार अद्भुत स्वप्न दिखे-(१) लहराता हुआ समुद्र, (२) परम दैदीप्यमान ऊगता हुआ सूर्य, (३) कमल पुष्प पर बैठी हुई लक्ष्मी का हाथियों द्वारा अभिषेक, (४) भयानक वन में सिंह गर्जना । बेटा तेरा जन्म होते ही तेरे पिताजी को यश और सम्मान मिला, पहले राज्य की साधारण लिखा-पढ़ी करते थे,फिर कोषाधीष पद दिया गया । तेरे जन्म पर राज्य भर में खुशियाँ मनायी गई, बड़े उत्सव हुए, बड़े आनंद से लालन पालन हुआ। तेरी पाँच वर्ष की उम्र में राज्य में क्रांति हुई और लड़ाई - झगड़े होने लगे। अकस्मात् कोषालय में आग लगने से सब कागजात जल गये, तेरे पिताजी बड़ी चिंता में पड़ गए, तूने तेरे पिताजी को कमरे में बिठाकर उन्हीं के द्वारा ? रात भर में सब कागजात तैयार करवा दिये । राजा को इस बात का पता लगा और उन्होंने तुझे दरबार में बुलाया । हम तेरे अनिष्ट की आशंका से तुझे लेकर रात में ही भगा दिये और गढौला ग्राम में आकर एक जमींदार के यहाँ
शुद्धात्मा जिनका सुरत्नत्रय निधि का कोष था। रमण करते थे सदा निज में जिन्हें संतोष था । तारण तरण गुरुवर्य के चरणार विंदों में सदा । हो नमन बारम्बार, निजगुण दीजिये शिव शर्मदा ॥