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श्री आवकाचार जी
के संरक्षण एवं अध्यात्म शिरोमणी पूज्य श्री ज्ञानानंद जी महाराज के निर्देशन में श्री निसई जी क्षेत्र पर चौदह ग्रंथों का शुद्ध मूलपाठ हुआ। जिसका प्रकाशन श्री तारण तरण जैन तीर्थ क्षेत्र निसई जी ट्रस्ट द्वारा हुआ। इस अध्यात्मवाणी जी ग्रंथ के पृष्ठ संख्या ४३० पर नाममाला ग्रंथ में शिष्य संख्या के बारे में इस प्रकार लिखा है " जोड़ सर्व ४३४५३३१ " इस कथन से यह सिद्ध होता है कि आचार्य तारण स्वामी के शिष्यों के नाम स्थान आदि का परिचय देने वाले नाममाला ग्रंथ में प्रारंभ से ही जो भिन्न भिन्न संख्यायें आई हैं, उन सबका जोड़ उपरोक्त तिरतालिस लाख पैंतालीस हजार तीन सौ इकतीस होता है। इतनी बड़ी
संख्या में सभी जातियों के लोग उनके अनुयायी बने थे। समाज में जिज्ञासु जीव हमेशा यह प्रश्न करते हैं कि इतनी बड़ी संख्या में तारण पंथी थे फिर वर्तमान में उतनी संख्या क्यों नहीं है, इतनी बड़ी संख्या के लोग कहाँ गये ? इस जिज्ञासा का समाधान भी नाममाला में आया है और उसी के आधार पर तारण की जीवन ज्योति के चार भाग पूर्ण होने के बाद तारण समाज के पूर्ववर्ती इतिहास में पूज्य श्री ने ४३४५३३१ में कमी होने का रहस्य भी स्पष्ट किया है।
इतना बड़ा विशाल जनसमुदाय जिनका अनुयायी बना, जिनने संपूर्ण भारत वर्ष में अध्यात्म का शंखनाद किया। मानव मात्र को आत्म कल्याण का मार्ग बताया, जाति-पांति से दूर वास्तविक अध्यात्म धर्म का स्वरूप जगत के जीवों को बताकर मानवीय एकता और धार्मिक सद्भावना का सूत्रपात किया। ऐसे महान वीतरागी संत सद्गुरू श्री जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज के जीवन परिचय की विशद् विवेचना सहित चार भागों में विभाजित
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तारण की जीवन ज्योति " का स्वाध्याय चिंतन-मनन कर सभी जीव लाभान्वित हों और उनके वीतरागी व्यक्तित्व को समझकर स्वयं के भी आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त करें इसी मंगल भावना से प्रथम भाग के तीन परिच्छेद और संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है ।
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छिंदवाड़ा
दिनांक- ५.२.२००१
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ब्र. बसन्त
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जन्म
श्री गुरू तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय
जन्म स्थान
पिता का नाम
माता का नाम
जाति
जन्म का नाम
॥ ॐ नमः सिद्धं
वन्दे श्री गुरु तारणम्
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जीवनज्योति
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मिती अगहन शुक्ला सप्तमी
विक्रम संवत् १५०५
पुष्पावती (बिलहरी) म. प्र.
पूज्य श्री गढ़ाशाह जी
पूज्या वीरश्री देवी दिगम्बर जैन
तारण
जीवन परिचय
पांच वर्ष की बाल्यावस्था तक पुष्पावती में रहना, बाद में मामा के यहाँ सेमरखेड़ी आना, यहीं पर शिक्षा दीक्षा होना। ग्यारह वर्ष की अल्पवय में नाना जी के स्वर्गवास होने पर वैराग्य का जागरण होना । धर्म शिक्षा पढ़ने के लिये चंदेरी श्री भट्टारक जी के पास जाना। इक्कीस वर्ष की किशोरावस्था में ब्रह्मचर्य व्रत का नियम लेना। तीस वर्ष की आयु में ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण करना । आत्म साधना, धर्म प्रभावना होना। साठ वर्ष की उम्र में निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु होना । ६६ वर्ष ५ माह १५ दिन की आयु में मिती ज्येष्ठ वदी ६ विक्रम संवत् १५७२ में समाधिमरण और सर्वार्थसिद्धि गमन ।