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श्री श्रावकाचार जी मुकाम किया। वहाँ पर जमींदार कई दिन से बीमार था । तुझे देखकर उसने तुझे गोदी में लिया, तेरे स्पर्श करने मात्र से उसका रोग दूर हो गया । यह चर्चा गाँव भर में फैल गई और बहुत लोग आने लगे, तुझे भगवान का ई अवतार मानने लगे, हमको डर लगा और हम तुझे लेकर वहाँ से भी चल दिये । सूखा ग्राम में आये, वहाँ आस - पास पानी नहीं था । कुआं खोदने पर वहाँ पानी नहीं निकलता था। सभी ग्रामवासी बड़े दु:खी थे, तूने एक स्थान बताया, वहाँ दस हाथ पर ही पानी निकल आया , सारे ग्राम में : खुशियाँ मनायी गईं। वहाँ भी सब तुझे भगवान मानने लगे । एक साधु वहीं 5 बगीचे में मंत्र सिद्ध कर रहा था, पर मंत्र सिद्ध नहीं हो रहा था, तेरे दर्शन मात्र से उसका मंत्र सिद्ध हो गया, वह तुझे अपना गुरू मानने लगा। हमारी तो आफत होने लगी, वहाँ से भागकर यहाँ भैया के गाँव में आकर बसे, यहाँ भी तेरी करतूतों से रात -दिन झंझट ही रहती है । कोई गुरू मानता है, कोई भगवान कहता है, कोई तारण स्वामी ; और तेरे मामा भी तेरे विरोध में रहते हैं, रात दिन उलाहना देते हैं। बेटा, जब तू ग्यारह वर्ष का था, तब तेरे नानाजी का स्वर्गवास हुआ था । हम सबके मना करने पर भी तू शव यात्रा में चला गया और वहाँ से लौटने पर तेरी विचित्र दशा हो: गई,बिल्कुल विरक्त वैरागी हो गया । तेरे मामाजी ने तुझे इसीलिये चंदेरी भट्टारक जी के पास पढ़ने भेजा था ; पर वहाँ से लौटकर भी तेरे वही 5 हाल हैं । बेटा, यह कैसा होता जा रहा है ? अब यह सब छोड़कर अपने पिताजी के व्यापार में हाथ बंटा और मेरी भी इतने दिनों की साध को पूरी
करने दे। अच्छे आनंद उत्साह से विवाह करने दे। तारण- माँ ! जगत का परिणमन स्वतंत्र है, जिस समय जैसा होना है, सब होता
है। जैसा होना होता है वैसे निमित्त मिल जाते हैं, कोई किसी का कुछ नहीं
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कर सकता । सबका अपने-अपने कर्मानुसार परिणमन होता है, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं कर सकता, यह अटल सिद्धान्त है । हम अपनी मिथ्या मान्यता से मोह में फंसकर चाहे जैसा मान लें और चाहे जैसा करें परन्तु यथार्थ में हमारा अज्ञान भाव, मोह, राग-द्वेष ही हमारे दुःख का कारण है। अपनी पर द्रव्य में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना ही सुख-दु:ख देती है और फिर यह सब संसार का ही कारण है । जीव तो अजर-अमर, अविनाशी, निराकार, शुद्ध, सिद्ध के समान परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप है । यह शरीर अजीव जड़ पुद्गल है, इससे जीव सर्वथा भिन्न है । हम अपनी मिथ्या मान्यता से ही सबको अपना मान रहे हैं, माता-पिता, भाई-बहिन, स्त्री-पुरुष, परिवार, धन वैभव........ अरे ! जब यह शरीर ही अपना नहीं है तो फिर कौन किसका है ? यह सब तो स्पष्ट ही 'पर' हैं, यह व्यर्थ ही मिथ्या मोह में फंसकर यह जीव अपने अज्ञान से अनादि काल से चार गति चौरासी लाख योनियों में भटकता फिर रहा है । जन्म-मरण कर रहा है, सुख-दु:ख भोग रहा है, इसका कोई साथी नहीं है, अकेला आता है और अकेला जाता है , इस प्रकार अनादि काल बीत गया ।अब बड़े सौभाग्य से यह मनुष्य पर्याय, जैन धर्म, वीतराग सर्वज्ञ देव की वाणी का सुयोग प्राप्त हुआ है ; तो क्या अब इसे भी विषय भोग में, मोह-राग में फंसकर व्यर्थ गंवाना है। माँ ! अब तो अपनी आत्मा का कल्याण करना है, सुख-दु:ख नहीं भोगना है, अब तो सच्ची मुक्ति श्री का वरण करना है, पूर्ण आनन्द अनन्त सुख को प्रगट करना है। अब तुम इस झूठे मोह में मत फंसो,अपना भी कल्याण करो, धर्म धारण करो।
नरतन पाया बड़े भाग्य से, अब तो सुन लो जिनवाणी। काये मोह में पड़े हुए हो, बीत रही है जिन्दगानी ॥ अगर लगे रहे इन्हीं सब में, वृथा जिन्दगी खोओगे। यह सब कुछ काम न देंगे, नरक निगोद में रोओगे।
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