________________
श्री आचकाचार जी
गाथा-४३९-४४२
) दूसरे, सत्य महाव्रत का स्वरूप कहते हैं
भागी होते हैं। व्यवहार में चौर कर्म व चौर भाव का त्याग तथा जिनेन्द्र की आज्ञा के अनृतं अनृतं वाक्यं, अनृत अचेत दिस्टते।
अनुसार वस्तु स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान तथा तद्रूप आचरण करना ही असास्वतं वचन प्रोक्तंच,अनृतं तस्य उच्यते ॥ ४३९॥ अचौर्य महाव्रत है। साधक धर्म साधन के निमित्त शास्त्र और आहार के अतिरिक्त
अन्वयार्थ- (अनृतं अनृतं वाक्यं) झूठ बोलना असत्य वचन कहलाता है अन्य कोई वस्तु दी हुई भी न लेवे क्योंकि सर्व प्रकार के परिग्रह का त्यागी कुछ भी (अनृत अचेत दिस्टते) क्षणभंगुर नाशवान अचेतन पदार्थों को देखना (असास्वतं
ग्रहण करता है तो अचौर्य व्रत का धारक नहीं है। वचन प्रोक्तंच) झूठे मिथ्या वचन कहना (अनृतं तस्य उच्यते) यह सब असत्य कहे
चौथे, ब्रह्मचर्य महाव्रत का स्वरूप कहते हैंजाते हैं इनका त्याग ही सत्य महाव्रत है।
ब्रह्मचर्य च सुद्धच, अबंभं भाव तिक्तयं । विशेषार्थ- असत्य का त्याग ही सत्य महाव्रत है। असत्य वाक्य बोलना, ६ विकहा राग मिथ्यात्वं, तिक्तं बंभ व्रतं धुर्व ॥ ४४१ ।। मिथ्यात्व पोषक वचन कहना, क्षणभंगुर नाशवान अचेतन पदार्थों को देखना, यह मन वयन काय हृदयं सुद्धं,सुद्ध समय जिनागमं । सब असत् कहे जाते हैं इनका त्याग ही सत्य महाव्रत है। जगत की समस्त क्रियायें
विकहा काम सद्भाव, तिक्तंते ब्रह्मचारिना ।। ४४२ ॥ नाशवान हैं, एक समय की पर्याय भी क्षणभंगुर नाशवान है, इनको स्थिर कहना असत्य है । कर्मोदय जन्य भाव भी अनित्य है, इन्हें नित्य मानना ही असत् है। 5
अन्वयार्थ- (ब्रह्मचर्य च सुद्धच) ब्रह्मचर्य की शुद्धि वह है (अभंभाव तिक्तयं) जिनवाणी के प्रतिकूल वचन कहना भी असत्य है। हर एक वचन जिनसूत्र की दृढ़ता:
८. जहां अब्रह्म भाव छूट गये (विकहा राग मिथ्यात्वं) विकथा, राग और मिथ्यात्व के कराने वाला बोलना ही सत्य महाव्रत है। शांत और मौन हो जाने वाला ही सत्य । (तिक्तं बंभ व्रतं धुवं) छूटने पर ही ब्रह्मचर्य महाव्रत सही होता है। महाव्रती है।
(मन वयन काय हृदयं सुद्ध) मन, वचन, काय और हृदय के शुद्ध होने से तीसरे, अचौर्य महाव्रत का स्वरूप कहते हैं
ॐ (सुद्ध समय जिनागम) जिनागम के अनुसार शुद्धात्म स्वरूप में रमण होता है (विकहा
3 काम सद्भाव) जब विकथा और काम का सद्भाव (तिक्तंते ब्रह्मचारिना) छूट जाता अस्तेयं स्तेय कर्मस्य, चौर भावं न क्रीयते।
है. तब ही अपने ब्रह्म स्वरूप में रमण होता है और वही ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य जिन उक्तं वचन सुद्धं च, अस्तेयं लोपनं कृतं ॥ ४४०॥ २ महाव्रतधारी है।
अन्वयार्थ- (अस्तेयं स्तेय कर्मस्य) अचौर्य व्रत-जिसमें चोरी के कर्म (चौर विशेषार्थ- ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म स्वरूप में रमण करना, सातवीं ब्रह्मचर्य भावं न क्रीयते) और चोरी के भाव भी न किये जायें (जिन उक्तं वचन सुद्धं च)5 प्रतिमा से यह स्थिति बनने लगती है। अपने ब्रह्म स्वरूप के अतिरिक्त शरीरादि सब जिनेन्द्र द्वारा कथित उपदेश को शुद्धता से पालन करना (अस्तेयं लोपनं कृतं) उनका अब्रह्म है इस ओर का भाव भी छूट जाता है वहां ब्रह्मचर्य की शुद्धि है। विकथा, राग लोप न करना ही अचौर्य महाव्रत है।
3 और मिथ्यात्व भाव का छूट जाना निश्चय से ब्रह्मचर्य व्रत है। जहां कुशील के भाव विशेषार्थ- तीसरा अचौर्य व्रत यह है कि चोरी के कर्म और चोरी के भाव भीनछूट जाते हैं, स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का राग छूट जाता है, विकथा की ओर मन किये जायें। असत्य वचन बोलना भी चोरी है, जो पद धारण किया जावे उसके जाता ही नहीं है। हमेशा अपने ब्रह्म स्वरूप आत्मा का मनन चिंतन ध्यान रहता । 9 विपरीत आचरण करना, व्रत, नियम, संयम लेकर भंग करना भी चोरी है। जिनेन्द्र है। की आज्ञा प्रमाण वस्तु का स्वरूप विचारना चाहिये, वैसा ही कहना चाहिये और वैसा
मन में कोई कामभाव-रागभाव का न होना, वचन से हास्य जनक रागवर्द्धक, ही पालन करना चाहिये । जो जैनागम में निरूपित जिनेन्द्र की देशना के विपरीत कामोत्पादक चर्चा भी नहीं करना, शरीर की कोई कुचेष्टा न होना, हृदय से शुद्ध आचरण करते हैं, कहते हैं, सोचते हैं, बताते हैं, वे जिनाज्ञा लोपी चोरी के दोष के होकर जिनागम में कहे अनुसार अपने शुद्धात्म स्वरूप का ध्यान करना ही ब्रह्मचर्य
Presicknorresponding