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CSCG
श्री आवकाचार जी
स्वरूप को साधते हुए मरण करते हैं वे साधक श्रावक कहलाते हैं। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में से कोई भी प्रतिमाधारी समाधि मरण कर सकता है।
जो आत्महितैषी रत्नत्रय धर्म की रक्षा के लिये शरीर की कुछ परवाह नहीं करते उनका समाधिमरण स्तुति योग्य है; क्योंकि जो फल बड़े-बड़े कठिन व्रत-तप करने से प्राप्त होता है वही समाधिमरण करने से सहज में प्राप्त हो जाता है। बारह भावना वैराग्य की माता संवेग-निर्वेद की उत्पादक है, इनके चिन्तवन करने से संसार से विरक्तता होकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप भावनाओं में गाढ़ रुचि उत्पन्न होती है; अतएव समाधिमरण करने वाला इन भावनाओं, आराधनाओं युक्त पंच परमेष्ठी के गुणों का तथा आत्म गुणों का चिन्तवन करे। निकटवर्ती साधर्मी भाईयों को भी चाहिये कि समाधिमरण करने वाले का उत्साह हर समय बढ़ाते रहें, धर्म ध्यान में सावधान करते रहें । वैयावृत्ति करते हुए सदुपदेश देवें और रत्नत्रय में उपयोग स्थिर करावें ।
यह बात ध्यान में रहे कि समाधिमरण करने वाले के पास कुटुम्बी या कोई दूसरे आदमी सांसारिक वार्तालाप न करें, रोवें नहीं, कोलाहल न करें; क्योंकि ऐसा होने से समाधिमरण करने वाले का मन उद्वेग रूप हो जाता है अतएव हर एक सज्जन को यही उचित है कि उसके निकट संसार शरीर भोगों से विरक्त करने वाली चर्चा वार्ता करें तथा आगे जो बड़े भारी परीषह, उपसर्ग सहकर सम भावों पूर्वक समाधिमरण जिन्होंने साधा है उन सुकुमाल आदि सत्पुरुषों की कथा कहें जिससे समाधिमरण करने वाले के चित्त में उत्साह और स्थिरता उत्पन्न हो। इस प्रकार समता सहित, ममता रहित शरीर का त्याग करना समाधिमरण कहलाता है।
समाधिमरण के पांच अतिचार त्यागने योग्य हैं- १. कुछ काल और जीने की आशा, २. शीघ्र मर जाने की इच्छा, ३. मित्रानुराग पर का स्मरण मिलने की इच्छा, ४. पूर्व में भोगे हुए भोगों का स्मरण करना, ५ . पर भव में विषय भोगों की
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वांछा करना ।
जो अणुव्रती सत्पुरुष अतिचार रहित सन्यास मरण करते हैं वे अपने किये हुए व्रत रूपी मंदिर पर मानों कलश चढ़ाते हुए स्वर्ग में महर्द्धिक देव होते हैं। दो-चार भव में ही सच्चे आत्मीक निराकुलित स्वरूपानन्द को प्राप्त होते हैं; क्योंकि समाधिमरण के भले प्रकार साधने से अगले जन्म में वासना चली जाती है जिससे वह जीव वहां विराग रुचि होकर निर्ग्रन्थपना धारण करने को उत्साहित होता है और
mosh remnach new noch new mosh.
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गाथा-४२७,४३८
शीघ्र ही मुनिव्रत धारण कर शुद्ध स्वरूप को साधकर मोक्ष प्राप्त करता है। ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करने से पांच अणुव्रत शुद्ध हो जाते हैं जिससे महाव्रत और साधु पद प्रगट होता है, इसका वर्णन करते हैं
अनुव्रतं पंच उत्पादंते, अहिंसा नृत उच्यते ।
अस्तेयं बंध व्रतं सुद्धं, अपरिग्रहं स उच्यते ॥ ४३७ ।।
अन्वयार्थ - (अनुव्रतं पंच उत्पादंते) ग्यारह प्रतिमा पालन करने वाले के पांच अणुव्रत प्रगट, शुद्ध होते हैं (अहिंसा नृत उच्यते) जिन्हें अहिंसा, सत्य कहते हैं (अस्तेयं बंभ व्रतं सुद्ध) अचौर्य और ब्रह्मचर्य व्रत शुद्ध होते हैं (अपरिग्रहं स उच्यते) अपरिग्रह, इस प्रकार पांच अणुव्रत कहे जाते हैं।
विशेषार्थ - व्रत प्रतिमा से बारह व्रतों का पालन होता है, ग्यारह प्रतिमा तक पंचाणुव्रत की पूर्ण शुद्धि हो जाती है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह जो पांच अणुव्रत रूप में श्रावक दशा में पालन करता था, यहां से यह महाव्रत रूप हो जाते हैं जिससे साधु पद प्रगट हो जाता है।
अणुव्रत की शुद्धि होने से महाव्रत का क्या स्वरूप होता है, उसका वर्णन करते हैं, प्रथम अहिंसा महाव्रत का स्वरूप कहते हैं
हिंसा असत्य सहितस्य, राग दोष पापादिकं ।
धावरं अस आरंभ, तिक्तंते जे विचष्यना ।। ४३८ ।।
अन्वयार्थ - (हिंसा असत्य सहितस्य) हिंसा और असत्य इन प्रयोजनों को लेकर (राग दोष पापादिकं ) राग-द्वेष, पाप आदि को (थावरं त्रस आरंभ) स्थावर व त्रस के आरम्भ को (तिक्तंते जे विचष्यना) जो विज्ञजन हैं वे छोड़ देते हैं।
विशेषार्थ - अणुव्रत में त्रस जीवों की हिंसा और निष्प्रयोजन पापों का त्याग होता है। महाव्रत रूप होने पर हिंसा और असत्य सहित राग-द्वेष परिणाम, समस्त पाप, विषय- कषाय और त्रस - स्थावर की आरम्भी हिंसा का त्याग भी हो जाता है। जो ज्ञानी विज्ञजन हैं, जिन्हें अब संसार शरीर भोगों से कोई प्रयोजन नहीं रहा, वह स्व-पर द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा से बचते हुए सावधानी पूर्वक अहिंसा महाव्रत का पालन करते हैं। अंतरंग में वीतराग भाव और बाहर में समस्त आरम्भ पाप आदि का त्याग ही अहिंसा धर्म है।