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You श्री आचकाचार जी
गाथा-४५६ Oo एक दिन ही ठहरते हैं तथा पैदल बिहार करते हैं वैसे ही यह श्रावक करेगा। देखादेखी श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में कही हुई प्रतिज्ञाओं में से कोई दो-चारG
१.क्षुल्लक-क्षुल्लक एक खंड वस्त्र जिससे पूरा शरीर न ढके तथा एक प्रतिज्ञायें अपनी इच्छानुसार नीची-ऊँची,यद्वा-तद्वा धारण कर त्यागी बन बैठते हैं लंगोट रखता है। सर्दी-गर्मी, दंशमसक आदि की बाधा सहने का अभ्यास करता और मनमानी स्वच्छंद प्रवृत्ति करते हैं जिससे स्व-पर कल्याण की बात तो दूर, है। जीव दया के लिये मोरपिच्छी व कमंडल में शौच आदि के लिये जल रखता है, उल्टी धर्म की बड़ी भारी हंसी व हानि होती है। ऐसे लोग 'आप डुबंते पांडे ले डूबे भिक्षा लेने के लिये एक पात्र भी रखता है। एक घर अथवा पांच सात घर से भिक्षा जिजमान' की कहावत के अनुसार स्वत: धर्म विरुद्ध प्रवृत्ति कर अपना अकल्याण भोजन एकत्र कर अंतिम घर में बैठकर भोजन पान करके अपने स्थान पर चला जाता करते हैं और दूसरों को भी ऐसा उपदेश देकर उनका अकल्याण करते हैं; अतएव है। चौबीस घंटे में एक ही बार भोजन पान करता है, केशों को कतराता है अथवा लौंच आत्मकल्याणार्थी भव्यों को उचित है कि पहले धर्म का वास्तविक स्वरूप समझें, भी कर सकता है।
हैं मुक्ति के मार्ग को जानें,तत्वों का सही ज्ञान करें,अपने आत्मा के स्वभाव-विभाव को ____२. ऐलक-ऐलक एक लंगोट मात्र रखते हैं, वे मुनि के समान केशों का लौच जानें। विभाव तजने और स्वभाव की प्राप्ति के लिये कारणरूप श्रावक तथा मुनिव्रत करते हैं, काष्ठ का कमंडल रखते हैं। भिक्षा से एक घर में बैठकर अपने हाथ में ही की साधक बाह्य-अंतरंग क्रियायें व उनके फल को जानें तत्पश्चात् यथाशक्ति चारित्र भोजन ग्रास रूप लेकर करते हैं, मुनि धर्म का अभ्यास करते हैं।
अंगीकार करें। श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का अभ्यास करके पीछे मुनिव्रत धारण यह दोनों क्षुल्लक-ऐलक ग्यारह प्रतिमाओं के नियमों को जो उत्कृष्ट चारित्र में कर कर्मों का नाश करें और परमात्मा बन स्वरूपानन्द में मगन रहें। बाधक नहीं है यथावत् पालन करते हैं। साधु होने की भावना भाते हैं, आत्म ध्यान
इस प्रकार ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप कहा, जो भव्य इनका सम्यक् प्रकार का विशेष अनुराग रखते हैं। ऐलक विशेष विरक्त हैं, रात्रि को मौन रखकर ध्यान पालन करते हैं वह मोक्षगामी हैंकरते हैं। उद्दिष्ट आहार के त्यागी इसलिये होते हैं कि उनके आशय से श्रावक कोई
प्रतिमा एकादसं जेन, जिन उक्तं जिनागमं । आरम्भ न करे, स्वयं के लिये जो बनावे उसी में से दान रूप जो देवे उसी में संतोष
पालंति भव्य जीवस्य, मन सुद्ध स्वात्मचिंतनं ॥४३६॥ करते हैं। उद्दिष्ट आहार त्यागी मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना सम्बंधी दोष रित-अनमोटना सम्बंधी टोप अन्वयार्थ- (प्रतिमा एकादसं जेन) जो यह ग्यारह प्रतिमा हैं (जिन उक्तं
अन्वयाथ- (प्रातमा एकादस जन) जा यह ग्यारह प्रातम रहित भिक्षाचरण पूर्वक आहार ग्रहण करते हैं। जाति-संप्रदाय के बन्धनों से रहित जिनागम) जिनेन्द्र परमात्मा के कहे अनुसार जिनवाणी में कही हैं (पालंति भव्य सद्गृहस्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जो सप्त व्यसन के त्यागी, अष्ट मूलगुण का पालनजीवस्य) जो भव्य जीव इनका पालन करते हैं (मन सुद्धं स्वात्म चिंतन) मन को शुद्ध करते हों, उनके यहां से अपने नियमानुसार शुद्ध आहार ग्रहण कर सकते हैं। उद्दिष्ट करके आत्मा का ध्यान करते हैं वह मोक्षगामी हैं। त्याग करने से पांचों पाप तथा परतंत्रता का सर्वथा अभाव हो जाता है। इस प्रतिमा के र विशेषार्थ- इन ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप जैसा जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा अंत में अणुव्रत, महाव्रतों को स्पर्शने लगते हैं। यहां तक प्रत्याख्यानावरण कषाय उपदिष्ट जिनागम में कहा गया है, वैसा ही अपने शुद्ध भावों से आत्म चिंतवन, ध्यान का जितना-जितना मंद उदय होता जाता है, उतना बाहरी व अंतरंग चारित्र बढ़ता करने हेतु निज आत्म कल्याणार्थ लिखा गया है, जो भव्य जीव इनका पालन करेंगे, जाता है। अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना और ध्यान की स्थिति बढ़ने लगती है, 5 करते हैं वे मोक्षमार्गी सच्चे श्रावक हैं। भावों में विशुद्धता बढ़ती जाती है, भावों की उत्कृष्टता होने से मुनि व्रत धारण कर व्रती श्रावक सदा सल्लेखना (समाधि) मरण करने के उत्साही व अभिलाषी मोक्ष को प्राप्त होता है।
रहते हैं इसलिये विषयों की मूर्छा तथा कषायों की वासना मन्द करते हए यथासंभव X विशेष-बहुधा देखा जाता है कि कितने भाई-बहिन अंतरंग में आत्म कल्याण पूर्ण रीति से भलीभांति व्रत पालन करते हैं-वहाँ जो श्रावक संसार, शरीर,भोगों से की इच्छा रखते हुए भी बिना तत्वज्ञान प्राप्त किये सम्यक्दर्शन से रहित दूसरों की विरक्त होते हुए इन्द्रियों के विषय तथा कषाय तजकर मन-वचन-काय से निज
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