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७ श्री आवकाचार जी
महाव्रत है।
जब हृदय से काम भाव और विकथाओं का सद्भाव भी छूट जाता है वही ब्रह्मचारी है। वेद के उदय जनित मैथुन सम्बंधी सम्पूर्ण क्रियाओं का सर्वथा त्याग तथा सर्व प्रकार की स्त्रियों में विकार भाव का अभाव वह द्रव्य ब्रह्मचर्य और स्वात्म स्वरूप में स्थिति होना निश्चय ब्रह्मचर्य है, दोनों का होना ही ब्रह्मचर्य महाव्रत है। पांचवें, अपरिग्रह महाव्रत का स्वरूप कहते हैं
परिग्रह प्रमानं कृत्वा, पर द्रव्यं नवि दिस्टते ।
अनृत असत्य तितं च परिग्रह प्रमानस्तथा ॥ ४४३ ॥
अन्वयार्थ- (परिग्रह प्रमानं कृत्वा) परिग्रह का प्रमाण करके ( पर द्रव्यं नवि दिस्टते) जो पर द्रव्य की तरफ भी नहीं देखता (अनृत असत्य तिक्तं च) क्षणभंगुर नाशवान असत् पदार्थों का संयोग छूट गया (परिग्रह प्रमानस्तथा) इस प्रकार परिग्रह त्याग से अपरिग्रह होता है।
विशेषार्थ नवमीं प्रतिमा में परिग्रह त्याग अणुव्रत रूप था, यहां जब समस्त संयोग सम्बंध ही छूट गये, जिसकी दृष्टि अपने ब्रह्म स्वरूप पर लगी है, जो पर द्रव्य को देख ही नहीं रहा, क्षणभंगुर नाशवान असत् पदार्थों से जिसका सम्बंध छूट गया, मात्र शरीर का ही संयोग है परन्तु उससे भी कोई ममत्व मूर्च्छा भाव नहीं है, अपने ब्रह्म स्वरूप में रमण और आत्म ध्यान की साधना में निरन्तर संलग्न हैं इसे अपरिग्रह महाव्रत कहते हैं।
इस प्रकार की साधना करके उत्कृष्ट श्रावक साधु पद धारण करता है, आगे साधु पद के स्वरूप का वर्णन करते हैं
SYAA AAAAAN FANART YEAR.
गाथा- ४४३-४४५
एतत् क्रिया संजुक्तं, सुद्ध संमिक्त सार्धयं । ध्यानं सुद्ध समयं च उत्कृस्टं स्रावगं धुवं ॥ ४४४ ॥ साधऊ साधु लोकेन, रत्नत्रयं च संजुतं । ध्यानं तिअर्थ सुद्धं च अवधिं तेन दिस्टते ।। ४४५ ।।
अन्वयार्थ - (एतत् क्रिया संजुक्तं ) इस प्रकार ऊपर कही हुई क्रियाओं से संयुक्त साधक (सुद्ध संमिक्त सार्धयं) शुद्ध सम्यक्त्व की साधना करता है (ध्यानं सुद्ध समयं च) और शुद्ध आत्मा के ध्यान में लीन रहता है (उत्कृस्टं स्रावगं धुवं )
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वही निश्चय से उत्कृष्ट श्रावक साधक है।
(साधऊ साधु लोकेन) वही साधक सच्चा साधु लोक में पूज्य है (रत्नत्रयं च संजुतं) जो निश्चय रत्नत्रय - सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से संयुक्त होता है (ध्यानं तिअर्थ सुद्धं च ) जो रत्नत्रय से शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है (अवधिं तेन दिस्टते) उसके अवधि ज्ञान दिखाई देने लगता है।
विशेषार्थ जो सम्यकदृष्टि ज्ञानी अव्रत भाव से ऊपर उठकर व्रत धारण करता है, ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करता है वह उत्कृष्ट श्रावक (साधक) अपने में परिपूर्ण शुद्धात्मा की ध्यान साधना में रत रहता है। बाहर से समस्त आरम्भ, पाप-परिग्रह, विषयादि कषायों से मुक्त हो जाता है, जिसको संज्वलन कषाय का उदय होता है, वह साधक साधु पद धारण करता है, जो लोक में पूज्य होता है। निश्चय-व्यवहार से समन्वित रत्नत्रय - सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का धारी रत्नत्रय से शुद्ध, आत्मा का ध्यान करने वाला होता है जिसे अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है।
जो पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्त, आरम्भ परिग्रह से रहित और ज्ञान, ध्यान, तप में लवलीन हो वही साधु है।
जिसे लोक स्थित जीव पुद्गलादि षट्द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप पूर्वक शुद्ध आत्म द्रव्य की स्वाभाविक पर्यायों के और पुद्गल जनित वैभाविक पर्यायों के जानने से मिथ्याबुद्धि दूर होकर तत्व का सही निर्णय, सत्श्रद्धान और सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तब वह अपने शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति के लिये उसके साधक कारणों को • मिलाता है और बाधक कारणों को दूर करता है, इसी क्रिया को सम्यक्चारित्र कहते हैं।
चारित्र की आरंभिक श्रेणी में हिंसादि पांच पापों का स्थूलपने त्याग होता है जिसे श्रावक धर्म या अणुव्रत कहते हैं इनके रक्षणार्थ तथा महाव्रतों की आरम्भिक क्रियाओं के शिक्षणार्थ दिग्व्रत आदि सप्त शीलों का पालन किया जाता है, जिसका फल यह होता है कि अणुव्रत, महाव्रतों को स्पर्शने लगते हैं और इनका पालक पुरुष •महाव्रत धारण करने का अधिकारी हो जाता है।
चारित्र की उत्तर श्रेणी में हिंसादि पांच पापों का सम्पूर्णपने त्याग होता है इसे मुनि धर्म या महाव्रत कहते हैं। इसके निर्वाहन तथा रक्षणार्थ पांच समिति, तीन गुप्ति भी पालन की जाती हैं। जिसका फल यह होता है कि महाव्रत यथाख्यात