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श्री आवकाचार जी
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चारित्र को प्राप्त हो जाते हैं।
मुनियों के उत्सर्ग-अपवाद दो मार्ग कहे गए हैं- १. उत्सर्ग मार्ग - जहां शुद्धोपयोग परम वीतराग संयम होता है वह उत्सर्ग मार्ग है। २. अपवाद मार्ग - जहां शुद्धोपयोग से बाह्य साधन आहार, बिहार, निहार, कमण्डल, पीछी आदि के ग्रहण त्याग युक्त शुभोपयोग रूप सराग संयम होता है उसे अपवाद मार्ग कहते हैं। इनमें अपवाद मार्ग, उत्सर्ग मार्ग का साधक होता है।
आत्मज्ञान पूर्वक ध्यान में लवलीन रहना ही साधु का कर्तव्य है। अब साधु का आचरण क्रियाओं का पालन करना बतलाते हैं
न्यानं चारित्र संपूर्न, क्रिया त्रेपन संजुतं ।
पंच व्रत समिदिच, गुप्ति त्रय प्रतिपालये ॥ ४४६ ॥ चारित्रं चरनं सुद्धं, समय सुद्धं च उच्यते । संपून ध्यान जोगेन, साधओ साधु लोकर्य ।। ४४७ ॥
अन्वयार्थ - (न्यानं चारित्र संपून) साधु सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से परिपूर्ण होते हैं (क्रिया त्रेपन संजुतं ) श्रावक की त्रेपन क्रियाओं सहित होते हैं (तपंच व्रत समिदि च) तप और महाव्रत, पांच समिति तथा (गुप्ति त्रय प्रतिपालये) तीन गुप्ति का पालन करते हैं।
( चारित्रं चरनं सुद्धं) इस व्यवहार चारित्र से निश्चय सम्यक्चारित्र शुद्ध होता है (समय सुद्धं च उच्यते) उसे ही शुद्धोपयोग रूप कहा जाता है (संपूर्न ध्यान जोगेन) जोयोग से ध्यान समाधि की (साधओ साधु लोकयं) साधना करते हैं वही साधु लोक में पूज्य होते हैं।
विशेषार्थ - निर्ग्रन्थ जैन साधु शास्त्र ज्ञाता व आत्मज्ञानी होते हैं, पूर्ण चारित्र के अभ्यासी होते हैं, श्रावक की त्रेपन क्रिया (सम्यक्त्व, अष्ट मूलगुण, चार दान, रत्नत्रय की साधना, रात्रि भोजन त्याग, पानी छानकर पीना, ग्यारह प्रतिमा, बारह व्रत, बारह तप) सहित पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति का पालन करते हैं। बारह तप (छह बाह्य, छह अंतरंग) इनका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है, पांच महाव्रत का स्वरूप भी वर्णन किया जा चुका है, यहां संक्षेप में कहते हैं।
पांच महाव्रत- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जिनका आचरण पूर्ण रूपेण सावद्य की निवृत्ति और मोक्ष की प्राप्ति के लिये किया जाये वही महाव्रत
SYARAT YAAAAN FANART YEAR.
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गाथा- ४४६, ४४७
है। जिनका आचरण महाशक्तिवान, पुण्यवान पुरुष ही कर सकते हैं। महाव्रत धारण करने वाला महान होता है और परमात्मा बनता है।
पांच समिति-सम अर्थात् भले प्रकार शास्त्रोक्त, इति अर्थात् गमन आदि में प्रवृत्ति करना समिति है। इसमें समीचीन चेष्टा सहित आचरण होता है इसलिये यह व्रतों की रक्षक और पोषक हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार है
१. ईर्ष्या समिति - चार हाथ भूमि निरखकर, दिन में रौंदे हुए मार्ग में सम भाव से गमन करना ईर्या समिति है। अतिचार- गमन करते समय भूमि का भली-भांति अवलोकन नहीं करना, इधर-उधर देखते हुए चलना ।
२. भाषा समिति - शुद्ध, मिष्ट, अल्प वचन बोलना भाषा समिति है । अतिचार- देश काल के योग्य-अयोग्य विचार किये बिना बोलना, बिना पूछे बोलना, पूरा सुने जाने बिना बोलना ।
३. एषणा समिति- आहार ग्रहण की प्रवृत्ति को एषणा समिति कहते हैं। शुद्ध भोजन, अनुद्दिष्ट अर्थात् जो अपने निमित्त से न बनाया हो, श्रावक ने अपने लिये बनाया हो, भिक्षा पूर्वक त्रिकुल अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के घर, तप चारित्र बढ़ाने के लिये संतोष पूर्वक दिन में एक बार हाथ में ही रखकर भोजन करना एषणा समिति है। अतिचार - दोष सहित भोजन करना, अति रस की लंपटता से प्रमाणाधिक भोजन करना ।
४. आदान निक्षेपण समिति रखी हुई वस्तु को उठाना आदान और ग्रहण की हुई वस्तु को रखना निक्षेप कहलाता है। जिससे किसी जीव को बाधा न पहुंचे उस प्रकार शास्त्र, पीछी, कमण्डल आदि उठाना रखना आदान निक्षेपण समिति है। अतिचार - भूमि पर शरीर तथा उपकरणों को शीघ्रता से उठाना धरना, उतावली में प्रतिलेखन करना ।
५. प्रतिष्ठापना समिति- जीव-जंतु रहित, बाधा रहित निर्दोष स्थान पर देख - शोध कर मल-मूत्र, कफ आदि क्षेपण करना प्रतिष्ठापना समिति है । अतिचार - अशुद्ध बिना देखे - शोधे भूमि पर मल-मूत्र आदि क्षेपण करना।
बारह तप, पांच महाव्रत, पांच समिति का पालन करने से इन्द्रिय निरोध होता है, स्पर्शन आदि पंचेन्द्रियों के विषयों में लोलुपता होने से असंयम तथा कषायों की वृद्धि होकर चित्त में मलिनता और चंचलता होती है; इसलिये जिनको चित्त निर्मल तथा आत्म स्वरूप में स्थिर करना है, आत्म स्वरूप को साधना है, ऐसे साधु मुनियों