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________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-४४६,४४७ C OOO को कषायों के उत्पन्न न होने देने के लिये पांच इन्द्रियों के विषयों से सर्वथा विरक्त अभ्यास करते हैं, अरिहंत पद पर जाकर सिद्ध होने की भावना साधुगण सदा रखते। होना चाहिये। इसी प्रकार इन पांच इन्द्रियों को कुमार्ग में गमन कराने वाले चंचल मन हैं, ऐसे साधु ही जगत पूज्य होते हैं। को भी वश में करना आवश्यक है। यद्यपि मन किसी रस आदि विषय को ग्रहण नहीं .. बाईस परीषह जयकरता तथापि इन्द्रियों को विषयों की तरफ झुकाता है। इस तरह इन्द्रियों तथा मन के असाता वेदनीय आदि कर्मजनित अनेक दुःखों के कारण प्राप्त होने पर भी विषयों में राग-द्वेष रहित होना इन्द्रिय निरोध कहलाता है। इन्द्रिय निरोध होने पर ही खिन्ननहोना तथा उन्हें पूर्व संचित कर्मों का फल जानकर निर्जरा के निमित्त समता, तीन गुप्ति का पालन होता है। शांति भाव पूर्वक सहना परीषह जय है। यह बाईस प्रकार की होती हैं जिनका गुप्ति-जिसके द्वारा सम्यकदर्शन, ज्ञान,चारित्र गोपित अर्थात रक्षित होता स्वरूप इस प्रकार हैहै उसे गुप्ति कहते हैं। जैसे-कोट द्वारा नगर की रक्षा होती है, उसी प्रकार गुप्ति द्वारा। १.क्षुधा परीषह- भूख की वेदना को शांति पूर्वक खेद रहित सहना। मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम अथवा शुभाशुभ कर्मों से आत्मा की रक्षा की जाती है। २.तृषा परीषह-प्यास की वेदना को शांतिपूर्वक खेदरहित सहना। गुप्ति के तीन भेद हैं, जिनका स्वरूप इस प्रकार है ३.शीत परीषह-ठंड की वेदना को शांतिपूर्वक खेद रहित सहना। १.मनोगुप्ति-मन से राग-द्वेष आदि का परिहार करना, सांसारिक चिंतवन ४. ऊष्ण परीषह-गर्मी की बाधा को शांति पूर्वक खेद रहित सहना। से मन को बचाना मनोगुप्ति है। अतिचार-रागादि सहित स्वाध्याय में प्रवृत्ति, अंतरंग ५.दंशमसक परीषह-डांस, मच्छर आदि अनेक जीव-जंतुओं जनित दु:ख में अशुभ परिणामों का होना। को समभाव से सहना। २. वचन गुप्ति-असत् अभिप्राय से वचन की निवृत्ति कर मौन पूर्वक ध्यान, ६.नग्न परीषह-उपस्थ (काम) इन्द्रिय को वश में करना,नग्न रूप रहने अध्ययन, आत्म चिंतवन आदि करना वचन गुप्ति है। अतिचार- राग तथा गर्व से की लोकलाज को जीतना। बोलना अथवा मौन धारण करना। ७. अरति परीषह-द्वेष के कारण आने पर खेद रहित शांत चित्त रहना। ३. काय गुप्ति- शरीर को निश्चल रखना, देख-शोध कर आसन ८. स्त्री परीषह-स्त्रियों में व काम विकार में चित्त नहीं जाने देना। बदलना, आलस्य रूप न रहना, दो घड़ी से अधिक लगातार न सोना काय गुप्ति ९.चर्या परीषह-पैदल चलते हुए कांटे, कंकड आदि से खेद-खिन्ननहोना। है। अतिचार-असावधानीपूर्वक काय की क्रिया (मल-मूत्र, भोजन-पान, शयन) १०.निषद्या परीषह-उपसर्ग आने पर खेद-खिन्न न होनातथा उपसर्ग दूर करना,सचित्त भूमि में बैठना चलना। होने तक अपने स्थान से न हटना। मुनिराज मन-वचन-काय का निरोध करके आत्मध्यान में ऐसे लवलीन रहते . ११.शयन परीषह-कठोर, कंकरीली भूमि पर खेद न मानते हुए एक आसन हैं कि उनकी वीतरागी स्थिर मुद्रा को देखकर वन के मग आदि पश पाषाण या ठंठ ____ से अल्प निद्रा लेना। जानकर उनसे खाज खुजाते हैं, ऐसा होते हुए भी वे आत्मध्यान में ऐसे निमग्न रहते १२. आक्रोश परीषह-क्रोध के कारण आने पर क्षमा तथा शांति ग्रहण करना। हैं कि उन्हें इसका कुछ भी भान नहीं होता। निग्रंथ साधुगण तेरह प्रकार चारित्र को १३. वध बंधन परीषह-कोई बांधे या मारे तो खेद न मानते हुए शांति पूर्वक निर्दोष पालते हुए मुख्य लक्ष्य शुद्धात्मा के अनुभव रूप स्वरूपाचरण या निश्चय सहना। चारित्रशुद्धोपयोग पर ध्यान रखते हैं। पदस्थ, पिंडस्थ,रूपस्थ,रूपातीत ध्यान के १४. याचना परीषह-औषधि, भोजन पानी आदि किसी से नहीं मांगना। अभ्यास से नाना प्रकार के कठिन स्थानों में तिष्ठकर परम वैराग्य के साथ निज १५. अलाभ परीषह-भोजन आदि न मिलने पर उससे कर्म निर्जरा जानकर X आत्मा का अनुभव करते हैं। उपसर्ग,परीषहों को शांत भाव से सहन करते हैं। ध्यान शांत भाव रखना। के द्वारा निश्चय चारित्र की पूर्णता करते हैं अर्थात् श्रेणी माड़कर शुक्ल ध्यान का १६. रोग परीषह-शरीर में किसी प्रकार का रोग आने पर कातर न होना, २४७ MOctoberriver veaadierractatoda
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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