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DOOR श्री श्रावकाचार जी
गाथा-४१८,४१९ SO0 प्रतिमा कही गई है, यहां श्री तारण स्वामी ने निश्चय नय के साथ व्यवहार का
सुद्ध तत्वं च आराध्यं, असत्यं तस्य तिक्तये। समन्वय करते हुए इसे सचित्त प्रतिमा कही है। इसका अभिप्राय है कि सम्यकदृष्टि ज्ञानी प्रतिमाधारी सावचेत अर्थात् होश में रहकर हमेशा अपने शुद्धात्मा के गुणों का
मिथ्या सल्य तिक्तं च, अनुराग भक्ति सायं ॥४१९।। चिन्तवन करता है, उसी का अनुभव करता है, किसी मूढ भक्ति वश अचेतन का अन्वयार्थ- (अनुराग भक्ति दिस्टं च) अपने आत्म स्वरूप की मग्नता और श्रद्धान नहीं करता, जो असत्य है उसे छोड़ देता है और स्वयं भी अज्ञान स्वरूप शुद्धात्म स्वरूप ध्रुव तत्व को देखना ही अनुराग भक्ति है (राग दोष न दिस्टते) जहां। पुद्गल आदि का चिन्तवन नहीं करता, नाशवन्त असत्य जगत की क्षणभंगुर पर्यायों राग-द्वेष दिखाई नहीं देते (मिथ्या कुन्यान तिक्तंच) जहां मिथ्यात्व और कुज्ञान छूट का भी चिन्तवन नहीं करता है। आर्त रौद्र ध्यानों को छोड़कर धर्म ध्यान में सचेत ४ गये हों (अनुरागं तत्र उच्यते) उसे ही अनुराग कहते हैं। रहता हुआ अपने आत्म स्वरूप का चिंतवन करता है वह सचित्त प्रतिमाधारी है। (सुद्धतत्वंच आराध्यं) जो अपने शुद्धात्म तत्व की आराधना करता है (असत्यं व्यवहार में हरी सचित्त वनस्पति आदि का भी त्याग कर देता है, जिनमें सम्मूर्च्छन 5 तस्य तिक्तये) उसके असत्य अर्थात् पर के विकल्प छूट जाते हैं (मिथ्या सल्य जीव होते हैं ऐसे जल आदि को भी प्रासुक करके सेवन करता है। यहां साधना का मूल तिक्तंच) मिथ्यात्व और शल्य के त्याग होने अर्थात् छूटने से (अनुराग भक्ति सार्धयं) उद्देश्य रसना इन्द्रिय की लोलुपता से बचकर अपने आत्म स्वरूप की साधना करने अपने आत्म स्वरूप की साधना शुद्धात्मा की ही अनुराग भक्ति होने लगती है यही का है। वह कच्चे या अप्रासुक मूल, फल, शाक, शाखा, कन्द, बीज आदि नहीं अनुराग भक्ति प्रतिमा है। खाता, अचित्त और प्रासुक की हुई वस्तुओं का सेवन करता है। रसना इन्द्रिय के विशेषार्थ- यह सम्यक्दृष्टि श्रावक की छटवीं प्रतिमा है, जो आत्मानुभूति स्वादवश अनन्त काय साधारण वनस्पति का घात नहीं करता है। जैसे-यह स्वयंसहित मक्ति के मार्ग पर चल रहा है उसका अपने शुद्धात्म स्वरूप के प्रति उत्साह सचित्त खाता-पीता नहीं है, वैसे यह दूसरों को भी नहीं देता। एकेन्द्रिय सम्मूर्च्छन . बहमान तथा आत्म ध्यान की साधना के लिये जो पाप परिग्रह, विषय-कषायों से जीवों की भी दया पालता है, जिह्वा इन्द्रिय के स्वाद से विरक्त है तथा अपने आत्म 3 छटता हआ आगे बढ़ रहा है उसका अपने सिद्ध स्वरूप के प्रति जो अनुराग भक्ति है स्वरूप की साधना में हमेशा सावचेत रहता है वही सम्यकदृष्टि ज्ञानी सचित्त वही वास्तव में अनुराग भक्ति प्रतिमा है, जिससे आगे बढ़कर यह साधक अपने ब्रह्म प्रतिमाधारी है।
स्वरूप में रमण करेगा। अन्य ग्रन्थों में जो दिवा मैथुन त्याग और रात्रि भुक्ति त्याग सचित्त त्याग करने से रसना इन्द्रिय वश में होती है और दया पलती है। वात, नाम दिया है वह व्यवहार अपेक्षा सामान्य कथन है । वास्तविक सत्यता तो इस पित्त, कफ का प्रकोप न होने से शरीर निरोग रहता है, शरीर की शक्ति बढ़ती है, अनुराग भक्ति में ही है, जहां अपने आत्म स्वरूपकी मग्नता है, जो अपने ध्रुव तत्व काम वासना मंद पड़ती है जिससे चित्त की चंचलता घटती है। पुण्य बन्ध होता है को देख रहा है. जिसे अब बाहर राग-द्वेष आदि दिखाई नहीं देते, मिथ्यात्व कुज्ञान तथा धर्म ध्यान में सहकारी होने से आत्म ध्यान द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है १ छूट गये हैं,शल्य विकल्प भी छूट गये हैं, जो अपने ध्रुव तत्व की साधना आराधना में इसलिये इसे सचित्त प्रतिमा कहते हैं।
४ संलग्न है, इसी को इष्ट उपादेय मानता है, पर के प्रति अनुराग और पर की भक्ति छूट ६.अनुराग भक्ति प्रतिमा
१२ गई है, जिसे अपने आत्म स्वरूप का अनुराग और परमात्म पद की भक्ति जाग्रत हो इस प्रतिमा को अन्य ग्रन्थों में रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा तथा दिवा मैथुन त्याग 5 गई है वह अनुराग भक्ति प्रतिमाधारी है। प्रतिमा कहा है जबकि श्री तारण स्वामी ने अनुराग भक्ति प्रतिमा कहा है, जो साधक
७.ब्रह्मचर्य प्रतिमा की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण और यथार्थतया सत्य है इसका स्वरूप कहते हैं
जो ज्ञानी पुरुष स्त्री के शरीर को मल का बीजभूत, कर्म मल को उत्पन्न करने अनुराग भक्ति दिस्ट च, राग दोष न दिस्टते।
वाला मल प्रवाही दुर्गन्ध युक्त, लज्जा जनक निश्चय करता हुआ सर्व प्रकार की मिथ्या कुन्यान तिक्तंच, अनुरागं तत्र उच्यते ॥ ४१८॥ स्त्रियों में मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से काम सेवन तथा तत्सम्बंधी
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