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9 श्री आवकाचार जी
आश्रय तो लेना ही पड़ेगा।
अब यहाँ तारण स्वामी की महानता की विशेष बात जो इस ग्रन्थ के प्रारंभ में लिखी है, बड़ी अपूर्व बात है। सम्यक्दृष्टि कौन है, कौन नहीं है, यह बात तो स्वयं जाने या सर्वज्ञ जाने, दूसरा तो जान ही नहीं सकता और संसारी कर्म संयोग, गृहस्थ दशा में मोहादि की प्रबलता होने के कारण जीव को भी संशय विभ्रम हो जाता है कि ऐसी दशा में कैसे सम्यकदृष्टि हूँ, ना मालूम सम्यदृष्टि हुआ भी या नहीं हुआ। इस शंका, संशय भ्रम के निवारणार्थ, तारण स्वामी उस जीव की दशा का वर्णन करते हैं कि जिसे सम्यक्दर्शन, निज शुद्धात्मानुभूति हो गई, उसकी कैसी दशा होती है, उसकी श्रद्धा लक्ष्य और दृष्टि कैसी होती है, इस अन्तरंग परिणति का अपूर्व वर्णन किया है। जो सभी जीवों को सुनने, समझने, पढ़ने, चिन्तन करने की आवश्यकता है । यहाँ पहले सम्यकदृष्टि कैसा होता है, उसकी अन्तरंग दशा का वर्णन किया है, फिर बहिरात्मा अज्ञानी कैसा होता है उसका वर्णन किया है, आगे फिर अन्तरात्मा ज्ञानी कैसा होता है उसका वर्णन किया गया है और उसके बाद फिर अव्रती का आचरण कैसा होता है, व्रती का आचरण क्या है और महाव्रती कैसा होता है, यह बहुत ही अपूर्व वर्णन किया है, जो सामान्यत: अन्य श्रावकाचार में मिलना दुर्लभ है। तारण स्वामी ने जैन दर्शन के मर्म को भगवान महावीर के स्याद्वादी अनेकान्त मार्ग का निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक वर्णन किया है, जो सभी जीवों को पठनीय, मननीय आचरणीय है। सामान्य गृहस्थ, अव्रत सम्यकदृष्टि की अन्तरंग दशा, भावना और श्रद्धान तथा लक्ष्य क्या होता है, इसका वर्णन प्रारंभ करते हैं -
संसार का स्वरूप क्या है, इसे सम्यकदृष्टि कैसा मानता है - संसारे भय दुष्यानि, वैरागं जेन चिंतये ।
अनृतं असत्यं जानंते, असरनं दुष भाजनं ॥ १५ ॥ अन्वयार्थ - (संसारे भय दुष्यानि) संसार में भय और दुःख ही दुःख हैं (वैरागं जेन चिंतये) उस मुमुक्षु द्वारा वैराग्य भाव का चिन्तन चलता है (असरनं दुष भाजनं ) संसार अशरण तथा दुःखों का घर है (अनृतं असत्यं जानंते) नाशवान और झूठा है, ऐसा जानते हैं।
विशेषार्थ - यहाँ सम्यकदृष्टि की अंतरंग दशा, भावना कैसी होती है, यह बताया जा रहा है कि उसे संसार में भय और दुःख ही दुःख लगता है और इससे छूटने का हमेशा विचार चलता रहता है। यहाँ संसार अर्थात् निश्चय से 'संसरति संसार:' 20
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गाथा १५
अपने स्वभाव से खिसक जाना, विभाव परिणमन करना फिर उसे अच्छा नहीं लगता; क्योंकि विभाव परिणमन चलने से भय, चिन्ता और दुःख होता है। व्यवहार में संसार का अर्थ है- धन, शरीर, परिवार। यह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को तो सुख रूप और इष्ट लगते हैं; परंतु सम्यक्दृष्टि ज्ञानी को यह दुःखदाई, अनिष्ट कर लगते हैं, वह उन्हें अपने भी नहीं मानता, एकत्वपना भी टूट चुका है, लेकिन इन्हीं संयोगों में रहना पड़ रहा है।
धन, शरीर, परिवार
धन- संसार में जीव का कर्मोदायिक पाप-पुण्य रूप परिणमन चलता है, जिससे धनादि का हानि-लाभ होता है। आवश्यकतानुसार न होने से खेद खिन्नता, चिन्ता रहती है। धन का अभाव, धन की चाह पाप कराती है। धन के अभाव में चिन्ता, परेशानी रहती है, धन की बहुलता में विषय- कषायों की प्रवृत्ति बढ़ती है। नाम यश आदि की चाह बढ़ती है, परिग्रह का फैलाव अधिक होने से हमेशा आकुलता बनी रहती है। रोटी, कपड़ा और मकान यह जीवन की आवश्यकतायें हैं, इनका अभाव दुःखी रखता है, सद्भाव भयभीत चिन्तित रखता है। संसार में जीने के लिये धन आवश्यक है; क्योंकि धन के बिना संसार का कोई काम नहीं होता, संसार •में धन सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है और यही सारे पाप, अनर्थ, अत्याचार, अन्याय, भ्रष्टाचार कराने वाला है।
शरीर- जब तक जीव संसार में है तब तक शरीर का संयोग तो रहता ही है क्योंकि अशरीरी सिद्ध परमात्मा होते हैं। सशरीरी, कर्मसंयोगी संसारी होते हैं । शरीर ही मैं हूँ, ऐसी मान्यता तो मिथ्यात्व है, लेकिन शरीर मेरा है यह मान्यता भी अज्ञान है, इसी से जीवन में अशान्ति और दुःख होता है, वीतरागी होने के पूर्व तक शरीर का संबंध और राग का सद्भाव रहता है। शरीर स्वस्थ्य रहे, रोगादि न हो, इसकी चिन्ता रहती है, खाने-पीने, पहनने ओढ़ने, रहने आदि की चिन्ता लगी रहती है, पाँचों इन्द्रियों के विषय-भोग, अशान्त उद्विग्न करते रहते हैं, मन की कल्पनायें, चाह तो निरन्तर ही लगी रहती है। शरीर का बचपन, जवानी, बुढ़ापा रूप परिणमन चलता है। शरीर की असक्तता, शिथिलता, बुढ़ापा, बीमारी, कुरूपता, अंग-भंग हीनता आदि हमेशा ही दुःखी और भयभीत रखती हैं। विषय, पाप आदि सब शरीर से ही होते हैं। जब तक शरीर का लगाव - आसक्ति रहती है, तब तक जीव निरंतर ही भयभीत, भ्रमित, अशांत, परेशान दुःखी रहता है।
परिवार - यह सब अनर्थों की जड़ है, जीव की दुर्गति का कारण परिवार ही