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७ श्री श्रावकाचार जी कहलाती है और सुमति-सुश्रुतज्ञान की पर्याय सुबुद्धि कहलाती है। मिथ्यात्व सहित रहती है। इस प्रकार सच्चे देव, सच्चे गुरू और सत्शास्त्र का स्वरूप बताकर निश्चय जो ज्ञान है वह कुज्ञान है और सम्यक्त्व सहित जो ज्ञान है वह सुज्ञान है। अब यहाँ को प्रधान रखते हुए व्यवहार भी निभाया है। बाहर में सत्शास्त्र का स्वाध्याय किया, प्रवचन सुने, यहाँ तक कि साक्षात् तीर्थकर . इसी क्रम में पुन: देव, गुरू, शास्त्र की वन्दना कर शास्त्र लिखने का अभिप्राय के समवशरण में उनकी दिव्यध्वनि सुनी, पर क्या हुआ?
ॐ कहते हैं - देशनालब्धि हो गई।
देवं गुरं श्रुतं वन्दे, न्यानेन न्यान लंकृतं। भाई ! देशना लब्धि भी किसको कहते हैं, जो बात हमने सुनी वह बात समझ बोच्छामि श्रावगाचारं, अविरत संमिक दिस्टितं ॥१४॥ में आ जावे, चित्त में बैठ जावे उसका नाम देशना लब्धि है अर्थात् अपने समझने की
अन्वयार्थ- (न्यानेन न्यान लंकृत) जो ज्ञान ही ज्ञान से शोभायमान अर्थात् पात्रता, बाहर के यह सुनने-पढ़ने से कुछ नहीं होता। तो यहाँ जिसकी सुबुद्धि हो । गई बस उसे ही जिनवाणी सरस्वती का सब रहस्य समझ में आ गया, फिर
मात्र ज्ञानमयी है (देवं गुरं श्रुतं वन्दे) ऐसे शुद्धात्मतत्व देव, गुरू और शास्त्र को उसकी सुबुद्धि ही उसे सब कुछ बताती है। तारण स्वामी अध्यात्मवादी साधक थे,
नमस्कार करता हूँ (अविरतं संमिक दिस्टितं) अव्रत सम्यक्दृष्टि के लिये (बोच्छामि
श्रावगाचार) श्रावकाचार कहता हूँ। उन्होंने अपने जीवन में स्वयं का अनुभव किया और आगम को अनुभव प्रमाण सिद्ध किया; क्योंकि आगम में किस अपेक्षा क्या लिखा गया है और लिखने वाले ने
विशेषार्थ- यहाँ ज्ञान ही ज्ञान से शोभायमान अर्थात् शुद्धात्म तत्व को तीन वर्तमान देश, काल, परिस्थिति, भाषा के अनुसार क्या लिखा है, उसका अभिप्राय
- रूपों में अर्थात् देव शुद्धात्मा, गुरू अन्तरात्मा और शास्त्र सुबुद्धि का पुनः स्मरण क्या है ? जब तक यह स्वयं के अनुभव में न आवे, तब तक कार्यकारी सार्थक नहीं
४ करते हुए वंदना की है और अव्रत सम्यक्दृष्टि के लिये श्रावकाचार लिखने का
करत हुए है। यहाँ तो तारण स्वामी ने अपूर्व रहस्य उद्घाटित किये हैं, जो एकान्तवादी
अभिप्राय व्यक्त किया है;अर्थात् जिसे अपने तत्व की श्रद्धा और निज शुद्धात्मानुभूति हठाग्रह आर साम्प्रदायिक दुराग्रह को छोडकर देखो समझो तो समझ में आ ही गई, उस आग बढन कालय प्ररित करते हुए श्रावकाचार अर्थात श्रावक के जीवन का परम रहस्य अपूर्व आनंद उपलब्ध होवे।
3 आचरण का त्रेपन क्रियाओं का वर्णन करते हैं कि निश्चय से तो जो निज यहाँ एक प्रश्न और है कि यह मति, श्रुतज्ञान की पर्याय बुद्धि कहलाती है
ही
शुधारमा
शुद्धात्मानुभूति की लीनता रमणता, स्थिरता की साधना करता है और व्यवहार में और इसमें कुज्ञान-सुज्ञान की अपेक्षा कुबुद्धि-सुबुद्धि हो जाती है, तो यहाँ यह
वेपन क्रियाओं का पालन करता है वह अव्रती से व्रती और महाव्रती होता हुआ, किसी को बहुत ज्ञान है, किसी को कम ज्ञान है, किसी की स्मरण शक्ति तीव्र विशेष
• अपने सिद्ध पद को पाता है। है, किसी की मंद है यह क्या है?
यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह अव्रत सम्यक्दृष्टि के लिये श्रावकाचार कहने का यह ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की विशेषता है, जिसके ज्ञानावरणीय
9 प्रयोजन रखा है तो जो सम्यक्दृष्टि हो गया हो अर्थात् जिसे निज शुद्धात्मानुभूति कर्म का उघाड़ क्षयोपशम ज्यादा है उसे बाहर में बहुत ज्ञान है, बहुत स्मरण शक्ति
हो गई हो, वही इस श्रावकाचार को पढ़े और वही यह त्रेपन क्रियाओं का पालन करे, है, सब बातें कंठाग्र हो जाती हैं और जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं
जिससे अव्रती से व्रती, महाव्रती होता हुआ अपने सिद्ध पद को पावे, सामान्य है उसे कितना ही पढ़ते, स्मरण करते, स्मरण नहीं रहता। यह क्षायोपशमिक ज्ञान संसारी जीव के लिये तो यह कोई उपयोगी कार्यकारी नहीं है? कहलाता है जो कभी भी छूट सकता है। बुद्धि तो मति, श्रुतज्ञान की पर्याय है, जो
उसका समाधान करते हैं कि बात तो यथार्थ सत्य है; क्योंकि जिसे भेदज्ञान, हमेशा जीव के साथ रहती है, इसमें यही विशेषता है कि यह पाँच इन्द्रिय और मन ।
सम्यकदर्शन हो गया है, वही तो आत्मा से परमात्मा बनेगा, जिसे अपने स्व स्वरूप की विशेषता से कम-ज्यादा होती है। असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक तो होती ही नहीं है,
का बोध ही नहीं है कि मैं जीव हूँ, तो उसे धर्म की उपलब्धि कैसे होगी और मुक्ति सैनी पंचेन्द्रिय को होती है, उसमें भी कर्मफल चेतना, कर्मचेतना की विशेषता
का मार्ग कैसे बनेगा। जीवन में सुख शान्ति चाहते हैं, जन्म-मरण के चक्र से छूटना चाहते हैं, संसार में दुःख और दुर्गति नहीं भोगना चाहते तो इसके लिये धर्म का
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