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ॐ
श्री आवकाचार जी
अपने आत्म कल्याण की भावना से ही धर्म साधना करता है।
३. किसी को दुःखी रोगी दरिद्री देखकर उसके प्रति करुणा होती है, उसकी सेवा करके दुःख दूर करने का उपाय करता है, किसी के प्रति ग्लानि घृणा भाव नहीं रखता । ४. मूढ़ता सहित कोई धार्मिक क्रिया नहीं करता, विवेक पूर्वक धर्माचरण करता है।
५. दूसरों के दोषों को प्रगट करने की आदत नहीं होती, धर्म और धर्मात्मा बदनाम न होवे इस बात का विशेष ध्यान रखता है।
६. धर्म में अपने को और दूसरों को दृढ़ स्थित रखता है।
७. साधर्मी भाइयों से गौ वत्स सम वात्सल्य भाव रखता है।
८. धर्म की प्रभावना तन, मन, धन से करता है, हर धार्मिक आयोजन में उत्साह पूर्वक संलग्न रहता है।
अपने शुद्ध पद, ध्रुव स्वभाव की साधना करता है, सम्यक्त्व के इन पच्चीस दोषों को भले प्रकार टालकर सम्यक्त्व को निर्मल रखता है तथा जो इन पच्चीस दोषों से संयुक्त होता है, तीन कुज्ञानों में रत रहता है ऐसे जीवों का संग छोड़ देता है, उनसे कोई धर्म चर्चा वार्ता भी नहीं करता ; क्योंकि विपरीत मार्ग वालों का संग और चर्चा वार्ता भी राग-द्वेष, कषाय बढ़ाने वाली होती है। त्यागी, संयमी, पंडित या साधु जो विपरीत मार्ग, विपरीत दृष्टि वाले होते हैं, साधक को इनसे बचकर हटकर ही रहना चाहिये। अपने परिणामों की सम्हाल और साधना होती रहे इसलिये जिन निमित्तों से सम्यक्त्व भाव दृढ़ होवे उन्हीं प्रसंगों में रहना चाहिये तथा सम्यक्त्व के बाधक कारण, साधना में विघ्न डालने वाले, राग-द्वेष को बढ़ाने वाले निमित्तों से दूर रहना आवश्यक है । सम्यक्दर्शन की निर्मलता और अपने स्वरूप की साधना का लक्ष्य सम्यकदृष्टि पहली दर्शन प्रतिमाधारी को निरंतर रहता है।
इस प्रकार इन पच्चीस मलों से मुक्त दर्शन प्रतिमाधारी अपने सम्यक्दर्शन,
ज्ञान, चारित्र की शुद्धि कर अपने में दृढ़ स्थित रहता है। इसी बात को आगे कहते हैं
आराधते बुधै जनै ।
मुक्तं दर्शनं सुद्धं, संमिक दर्सन सुद्धं च
न्यानं चारित्र संजुतं ॥ ३९१ ।। अन्वयार्थ - (मल मुक्तं दर्सनं सुद्धं) मलों से मुक्त होने पर ही दर्शन प्रतिमा शुद्ध होती है (आराधते बुधै जनै) ज्ञानीजन इसकी ही आराधना करते हैं (संमिक
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गाथा ३९१-३९३
दर्सन सुद्धं च) जहां सम्यक्दर्शन शुद्ध होता है वहां (न्यानं चारित्र संजुतं) ज्ञान और चारित्र भी शुद्ध होता है।
विशेषार्थ- पच्चीस मलों से अतिचार रहित मुक्त होने पर ही दर्शन प्रतिमा शुद्ध होती है, ज्ञानीजन इसकी आराधना करते हैं। जहां सम्यक्दर्शन शुद्ध होता है वहां ज्ञान और चारित्र भी शुद्ध होता है, यदि सम्यक्दर्शन शुद्ध नहीं है अंतरंग में मिथ्यात्व की वासना है, विषयाकांक्षा है, ख्याति लाभ पूजादि की चाह है वहां सामान्य ज्ञान तो क्या ! ग्यारह अंग नौ पूर्व तक का ज्ञान भी मिथ्या ज्ञान है तथा सम्यक्दर्शन की शुद्धि के बिना श्रावक का समस्त आचरण, ग्यारह प्रतिमा आदि व मुनियों का आचरण अट्ठाईस मूलगुण का निरतिचार पालन करना भी मिथ्याचारित्र है। इससे कभी भी आत्म कल्याण मुक्ति होने वाली नहीं है इसलिये मूल में सम्यक्दर्शन की शुद्धि अर्थात् शुद्ध सम्यक्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति होना अनिवार्य है।
सम्यक्दृष्टि ज्ञानी हमेशा शुद्ध तत्व की आराधना करता है तथा यह भाव भाता है कि जब तक मोक्ष न हो, मैं हर जन्म में इन सात बातों का अभ्यास करता रहूं
१. नित्य प्रति सम्यक्त्व वर्द्धक वीतरागता पोषक सत्शास्त्रों को पढ़ता रहूं। २. जिनेन्द्र भगवान के मार्ग का ही हमेशा अनुसरण करता रहूं।
३. निग्रंथ वीतरागी साधु और सत्पुरुषों की हमेशा संगति करता रहूं।
४. उत्तम चारित्रवान महापुरुषों के गुणानुवाद गाता रहूं।
५. पर के दोषों को कहने में मौन रहूं।
६. सर्व प्रिय, हितकारी जीवों के कल्याणकारी वचन ही बोलूं ।
७. निरंतर अपने आत्म स्वरूप की भावना, स्मरण, ध्यान करता रहूं।
इस प्रकार सम्यक्दर्शन की शुद्धता को दृढ़ रखता हुआ दर्शन प्रतिमा की साधना करता है।
आगे शुद्ध सम्यक्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हैंदर्सनं जस्य हृदयं सार्धं, दोषं तस्य न पस्यते । विनासं सकल जानते, स्वप्नं तस्य न दिस्यते ।। ३९२ ।। संमिक दर्सनं सुद्धं, मिथ्या कुन्यान विलीयते ।
सुद्ध समयं च उत्पादंते, रजनी उदय भास्करं ।। ३९३ ।।