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७ श्री आवकाचार जी
कुसास्त्रं विकहा रागं च, तिक्तते सुद्ध दिस्टितं । कुसास्त्रं राग ब्रिघंते, अभव्यं च नरयं पतं ॥ ३८७ ॥ अन्वयार्थ - ( अनायतन षट्कस्चैव) अनायतन छह कहे गये हैं (तिक्तते जे विचष्यना) जो विचक्षण ज्ञानी पुरुष हैं, वे इन्हें त्याग देते हैं (कुदेवं कुदेव धारी च) कुदेव और कुदेवों को मानने वाले उनके भक्त (कुलिंगी कुलिंग मानते) कुभेषी साधु और उनके मानने वाले (कुसास्त्रं विकहा रागं च) खोटे शास्त्र जिनमें राग वर्धक विकथायें हों और उनको पढ़ने वाले ( तिक्तते सुद्ध दिस्टितं ) इन छह की संगति सम्यकदृष्टि छोड़ देते हैं (कुसास्त्रं राग व्रिधंते) खोटे शास्त्र राग बढ़ाने वाले होते हैं (अभव्यं च नरयं पतं) जो इनको पढ़ते हैं, अनुसरण करते हैं वे अभव्य हैं और उनका नरक में पतन होता है।
विशेषार्थ दर्शन प्रतिमा धारण करने वाले को तीन मूढ़ता और छह अनायतन से बचना चाहिये। कुदेव, कुगुरु और कुशास्त्र तथा इनके सेवकों, भक्तों को धर्म के स्थान समझकर उनकी स्तुति, प्रशंसा करना षट् अनायतन है; क्योंकि यह छहों धर्म के स्थान नहीं हैं। संगति का बहुत भारी असर बुद्धि पर पड़ता है; इसलिये सम्यक्दर्शन की रक्षा के हेतु यह सम्हाल बताई है कि वह ऐसी संगति न रखे जिससे व्यवहार और निश्चय सम्यक्त्व में कोई प्रकार की बाधा होवे ।
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धर्म की वृद्धि के स्थानों को आयतन कहते हैं, जो इनके प्रतिकूल हों वे अनायतन हैं। रागी-द्वेषी देव, कुलिंगी भेषधारी साधु, विकथा और राग को बढ़ाने वाले कुशास्त्र और इनके मानने वालों की संगति से बचकर रहना आवश्यक है । परिणामों में शुद्ध सम्यक्दर्शन बना रहे, श्रद्धान ज्ञान चारित्र में दृढ़ता हो इसके लिये सम्यकदृष्टि ज्ञानी कुसंग से बचकर रहता है। विशेष बात यह है कि जो शास्त्र के नाम पर कुशास्त्र रचे गये हैं, जिनमें कुछ शास्त्र पूर्व के आचार्यों के नाम पर लिखे हैं, जिनमें राग की वृद्धि, मिथ्यात्व का पोषण, पवित्र जैन धर्म में शुद्ध आम्नाय के स्थान पर क्रिया कांड मिथ्या आडंबर का पोषण किया गया है ऐसे कुशास्त्र लिखने वाले 5 अभव्य होते हैं जो दुर्गति जाते हैं । इसलिये
अन्यानी मिथ्या संजुक्तं, तिक्तते सुद्ध दिस्टितं । सुद्धात्मा चेतना रूपं, सार्धं न्यान मयं धुवं ।। ३८८ ।। अन्वयार्थ- (अन्यानी मिथ्या संजुक्तं ) जो अज्ञानी मिथ्यात्व में लिप्त हैं।
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गाथा २८७-३९०
(तिक्तते सुद्ध दिस्टितं) ज्ञानी शुद्ध दृष्टि, ऐसे अज्ञानी जीवों की संगति छोड़ देता है (सुद्धात्मा चेतना रूपं) शुद्धात्मा जो चैतन्य स्वरूप है ( सार्धं न्यान मयं धुवं ) उस ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव की साधना करता है।
विशेषार्थ दर्शन प्रतिमाधारी श्रावक ऐसी तीन मूढ़ता और छह अनायतन को छोड़कर जो अज्ञानी मिथ्यात्व में लिप्त हैं उनसे भी हटकर उनकी संगति त्यागकर अपने चैतन्य स्वरूप शुद्धात्मा जो ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव है उसकी साधना करता है। आगे आठ मद और शंकादि आठ दोषों का वर्णन करते हैं
मद अर्स्ट ससंक अटं च, तिक्तते भव्यात्मनं ।
सुद्ध पदं धुवं सार्धं, दर्सनं मल विमुक्तयं । ३८९ ।। जेके विमल संपूर्न, कुन्यानं त्रि रतो सदा ।
ते तानि संग तिक्तंते, न किंचिदपि चिंतए ।। ३९० ।। अन्वयार्थ - (मद अस्टं ससंक अस्टं च) आठ मद और आठ शंकादि दोष
( तिक्तते भव्यात्मनं) भव्यात्मा इनको छोड़ देता है (सुद्ध पदं धुवं सार्धं) शुद्ध पद ध्रुव स्वभाव की साधना करता है (दर्सनं मल विमुक्तयं) इन पच्चीस मलों से रहित ही दर्शन प्रतिमा होती है।
(जे केवि मल संपूर्नं) जो कोई इन पच्चीस दोषों से संयुक्त होता है (कुन्यानं त्रिरतो सदा) तीन कुज्ञान में सदा रत रहता है (ते तानि संग तिक्तंते) उनका संग त्याग देना चाहिये (न किंचिदपि चिंतए) उनका कभी भी कोई विचार नहीं करना चाहिये ।
विशेषार्थ - सम्यक दृष्टि को तीन मूढ़ता, छह अनायतन के त्याग के साथ आठ • प्रकार का मद भी नहीं होता। आठ मद- जाति मद, कुल मद, धन मद, अधिकार मद, रूप मद, बल मद, विद्या मद और तप मद । इन बातों की उत्तमता व अधिकता अभिमान नहीं करता। इन आठ मदों से बचकर मार्दव भाव, विनम्रता का व्यवहार होने पर भी सम्यक्त्वी इनका संबंध क्षणिक और कर्म जनित जानकर इनके संयोग से करता है तथा आठ शंकादि दोषों से भी मुक्त होता है, जो इस प्रकार है
१. सच्चे देव, गुरु, धर्म का सच्चा श्रद्धान, निज शुद्धात्मानुभूति होती है इसमें किसी प्रकार की शंका नहीं करता तथा संसार के सप्त भयों से मुक्त होता है।
२. किसी प्रकार की संसारी कामना - वासना हेतु धर्म साधना नहीं करता,