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04 श्री आपकाचार जी
गाथा-३८३-२८६ ooo प्रतिमाधारी श्रावक कहलाता है।
मानना। जैसे-नदी आदि में स्नान करने से धर्म पुण्य होना,थैली आदिधन पूजने से आगे पच्चीस दोषों में तीन मूढ़ता का वर्णन करते हैं
धन आयेगा, कलम दवात पूजने से खूब व्यापार चलेगा, दुकान की दहली पूजने से मूढ़त्रयं उत्पादंते , लोक मूढं न दिस्टते ।
बहुत व्यापारी आयेंगे, दीपावली में जुआं खेलने से अपार धन मिलेगा, इस प्रकार की जेतानि मूब दिस्टीच, तेतानि दिस्टिन दीयते ॥ ३८३ ।। 6 अनेकों लोक मूढतायें हैं। इन सबको विचारवान दर्शन प्रतिमाधारी नहीं मानता, इन लोक मूढ़ देवमूढं च, अनृतं अचेत दिस्टते ।
पर कभी श्रद्धान, विश्वास नहीं करता। इसी प्रकार लोक मूढता जैसी देव मूढता भी
5 होती है। जैसे लोक मूढता मिथ्यात्व अज्ञान है, वैसे ही देव मूढता भी मिथ्यात्व तिक्तते सुद्ध दिस्टी च, सुखसंमिक्त रतो सदा ॥ ३८४॥
अज्ञान है। रागी-द्वेषी देव तो स्वयं संसाराशक्त हैं, उनकी पूजा करके अपना कल्याण पाषंडी मूढ उक्तं च, असास्वतं असत्य उच्यते। है भला मानना ही देव मूढ़ता है। किसी लौकिक प्रयोजनवश देव जाति के किन्हीं भी अधर्म च प्रोक्तं जेन, कुलिंगी पाषंड तिक्तयं ।। ३८५॥ देवों की पूजा भक्ति करना देवमूढ़ता है तथा जिनमें देवत्वपना ही नहीं है, ऐसे अदेव अन्वयार्थ- (मूढत्रयं उत्पादंते) तीन मूढता का स्वरूप प्रगट करते हैं (लोकx
कसानो वृक्ष, पाषाण आदि में कल्पित देवी देवता को पूजना देव मूढ़ता है। किसी चित्र, मूर्ति मूढं न दिस्टते) लोक मूढ़ता को नहीं देखता (जेतानि मूढ दिस्टीच) जितनी जगत में
पाषाण प्रतिमा आदि में देव की स्थापना करके सच्चे देव मानकर पूजा भक्ति करना लोक मूढता की मान्यतायें श्रद्धान हैं (तेतानि दिस्टि न दीयते) उन पर दर्शन
देव मूढता है। सम्यक्दृष्टि सम्यक्ज्ञानी होता है, वह अपने आत्मानुभव में ही तन्मय प्रतिमाधारी श्रद्धान नहीं करता, उन पर दृष्टि नहीं देता (लोक मूढं देव मूढं च) लोक
रहता है। आत्मानन्द का विलासी है, संसार शरीर भोगों से उदास रहता है, सम्यक्दृष्टि मूढता और देवमूढता को (अनृतं अचेत दिस्टते) मिथ्या रूप, अज्ञान रूप, नाशवान
। ज्ञानी कभी भी मिथ्या श्रद्धान और मिथ्या ज्ञान के वश होकर मूढ़ता से देखादेखी जड़ देखता है (तिक्तते सुद्ध दिस्टीच) इसलिये शुद्ध सम्यक्दृष्टि इन मूढताओं को ए
किसी कुदेव या अदेव को पूज्यनीय नहीं मानता, इसी प्रकार पाखंडी मूढता अर्थात् छोड़ देता है (सुद्ध संमिक्त रतो सदा) वह सदा ही शुद्ध आत्मानुभव रूप सम्यक्दर्शन
से आरंभ परिग्रह और हिंसादि दोष युक्त पाखंडी भेषधारी कुगुरुओं का आदर, में तन्मय रहता है।
3 सत्कार,पुरस्कार करना पाखंडी (गुरू) मूढता है। जो निग्रंथ, आरंभ-परिग्रह रहित (पाषंडी मूढ उक्तं च) अब पाखंडी मूढ़ता अर्थात् गुरू मूढ़ता को कहते हैं
वीतरागी तत्वज्ञानी साधु हैं वे मोक्षमार्गी हैं, उनकी भक्ति मोक्षमार्ग में प्रेरक है; परंतु
जो साधु भेष धारण करके आरंभ-परिग्रह में लीन हैं. हिंसा होते हए अहिंसा मानते (असास्वतं असत्य उच्यते) जो क्षणभंगुर नाशवान पदार्थों को शाश्वत बताकर झूठ: बोलते हैं (अधर्म च प्रोक्तं जेन) जो अधर्म की चर्चा करते हैं और उसी रूप आचरण !
हैं, अधर्म को धर्म कहते हैं, संसार के प्रपंच में फंसे हुए हैं, ऐसे साधुओं की कोई करते हैं (कुलिंगी पाषंड तिक्तयं) जो कुलिंगधारी झूठे भेषधारी साधु हैं, सम्यक्त्वी
5 बाहरी महिमा या उनका चमत्कार देखकर अथवा जानकर उन पर मोहित होना,
उनकी सेवा भक्ति करने लग जाना वह पाखंड या गुरू मूढ़ता है। सम्यकद्रष्टि कभी ऐसे पाखंडियों की सेवा भक्ति नहीं करते।
भी आगम के विरुद्ध चलने वाले लौकिक साम्प्रदायिक बंधनों में बंधे पाखंडी साधुओं विशेषार्थ- यद्यपि पच्चीस मल दोष का कथन पहले कर चुके हैं तथापि दर्शन
की मान्यता, सेवा भक्ति नहीं करता। इस प्रकार इन तीन मूढताओं से रहित दर्शन प्रतिमा का मूल आधार होने से विशेषता से यहां बताया जा रहा है।
5 प्रतिमाधारी श्रावक होता है। तीन मूढता-१. लोक मूढता, २. देव मूढ़ता, ३. पाषंड मूढता (गुरू मूढता)।
आगे छह अनायतन का स्वरूप कहते हैंमूढता अर्थात् मूढ मान्यता, रूढ़िगत मान्यतायें, विवेकहीन आचरण । इसमें पहली
अनायतन षट्कस्चैव, तिक्तते जे विचण्यना। लोकमूढता-लोगों की देखादेखी-करनेन करने योग्य मान्यतायेंकरना, इसमें लौकिक कामनाओं के वशीभूत क्रियायें करना, उसे धर्म मानना और उनसे अपना भला होना
कुदेवं कुदेव धारी च,कुलिंगी कुलिंग मानते ॥ ३८६॥
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