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POOO श्री बावकाचार जी कहे, उसका जिन वचनों पर श्रद्धान न होने से वह व्यवहार से भी रहित है। निश्चय करके वीतराग मार्ग के पथिक बनते हैं बाह्य में नग्न दिगम्बर रहते हैं: पर मिथ्यात्व सम्यक्दर्शन तो उसके पास हो ही नहीं सकता। ऐसे कुगुरु सदा ही मिथ्यादर्शन से और विपरीत आचरण होने से वह भी कुगुरु हैं। जो कुदेवादि की मान्यता पूजादि को लिप्त रहते हैं। उनको जिन वचनों का भय नहीं रहता वे मनमानी करते और धर्म कहते हैं। यंत्र-तंत्र, गण्डा,ताबीज आदि देते हैं, बताते हैं। धनादि संग्रह करते स्वच्छन्दता वरतते हैं। सम्यक्दर्शन से रहित भ्रष्ट गुरुओं को मिथ्यावृष्टि ही मानते हैं, साम्प्रदायिक द्वेष फैलाते हैं वे सब कुगुरु हैं। इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य ने ७ हैं, सम्यकदृष्टि कभी नहीं मानते। जो जीव कुगुरुओं की संगति करते हैं तथा किसी समयसार कलश में कहा हैलाज या भय से मानते हैं अथवा किसी आशा, स्नेह, लोभ के वशीभूत होकर मानते 5
सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमई जातु बंधो न मे स्या। हैं, वे मनुष्य दुर्गति के पात्र होते हैं अर्थात् दुर्गतियों में ही रुलते हैं। इसी बात को
वित्युत्तानोत्पुलक वदना रागिणोडप्या परन्तु ॥ रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है
आलम्बन्ता समिति परत ते यतोऽद्यापि पापा। भयाशा स्नेह लोभाच्च, कुदेवागम लिंगिनाम्।
आत्मानात्मावगम विरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः॥ १३७॥ प्रणाम विनयं चैव, न कुर्यु शुद्ध दृष्यः ॥ ३०॥
जो रागी होते हुए भी ऐसा माने कि मैं तो सम्यक्दृष्टि हूँ, मुझे तो कभी बंध हो सम्यकदृष्टि किसी भी भय, आशा, स्नेह, लोभ से कभी भी किसी कदेव, ही नहीं सकता और घमण्ड में रहे, चाहे जैसा आचरण करे अथवा बाहर से ईर्या कुशास्त्र व कुगुरु को प्रणाम, विनय नहीं करता। जिन कुगुरुओं का स्वरूप ऊपर आदि पांच समिति को भी पाले तो भी वह पापी ही है। सम्यक्त्व से खाली है, कहा गया है, वे सब मोक्षमार्ग के सच्चे स्वरूप के न स्वयं श्रद्धावान हैं और न उसको क्योंकि उसको आत्मा-अनात्मा का सम्यक् भेदज्ञान नहीं हुआ है। यथार्थ कहते हैं; किन्तु एकांत, विपरीत, विनय, संशय, अज्ञान रूप कुनय मिथ्यात्व। र मोक्षमार्गी स्वाद्वादी होता है। जो ज्ञान और क्रिया दोनों के साथ यथासम्भव के पोषक उनके वचन होते हैं। वे वचन विश्वास करने योग्य नहीं हैं। जो कोई मढS मैत्री, समन्वय रखता हुआ चलता है। मनुष्य कुगुरु को कुगुरु जानते-मानते हुए भी किसी के भय से कोई लाज से.या में
स्यावाद कौशल सुनिश्चल संयमाभ्या, किसी आशा सेव किसी के स्नेहवशयालोभ के कारण उनकी भक्ति करते हैं, उनको
यो भावयत्य हरहः स्वमिहोप युक्तः। मानते हैं, उनकी संगति करते हैं या उनके वचनों पर विश्वास करते हैं, वे मानव
ज्ञान क्रियानय परस्पर तीव्र मैत्री, मिथ्यात्व की पुष्टि या अनुमोदना के दोषी होते हुए, घोर पाप बांधकर नरक निगोदर
पात्रीकृतः श्रयति भूमि मिमांस एकः ॥२६७ ॥ पशुगति आदि में जाकर कष्ट पाते हैं। जो जीव कुगुरुओं ने जो कहा है उनके वचनों जो स्याद्वाद में चतुर है व संयम में निश्चल है और उपयोगवान होकर निरन्तर पर विश्वास करते हैं। उनका विश्वास करके उनके कथनानुसार अपना कर्तव्य आत्मा की भावना करता है, वह ज्ञान दृष्टि और क्रियादृष्टि इनमें परस्पर मैत्री रखता मानते हैं, वे मनुष्य दुर्गति के पात्र बनते हैं, क्योंकि कुगुरु बाह्य क्रियाकांड पूजादि हुआ इस मोक्षमार्ग की भूमि को आश्रय करने वाला है। या बाह्य आचरण,खान-पान, रहन-सहन को ही धर्म बताते हैं। साम्प्रदायिक द्वेष इसी बात को श्री तारण स्वामी ने पंडित पूजा की ३२ वीं गाथा में कहा हैफैलाते हैं। जाति-पांति का विरोध और आपस में मन मुटाव तथा मनुष्यों में धर्म के
एतत् संमिक्त पूजस्या, पूजा पूज्य समाचरेत। नाम पर भेदभाव पैदा करते हैं। राग-द्वेष का वातावरण बनाते रहते हैं। जो इनकी
मुक्ति श्रियं पथं सुद्ध, विवहार निस्चय सास्वतं ॥३२॥ बातों में लगते हैं, इनके कथनानुसार आचरण करते हैं, वह वर्तमान में भी भयभीत
सच्ची पूजा क्या है? सच्ची पूजा वह है जहाँ पूज्य के समान पूजक का अशान्त रहते हैं और भविष्य में दुर्गति में जाते हैं।
आचरण हो। मुक्ति का मार्ग क्या है ? मुक्ति का श्रेष्ठ मार्ग वह है जो शुद्ध व्यवहार और सामान्यत: साधु को ही गुरु कहते हैं और मानते हैं। इनमें कुवेषधारी जटाजूट, निश्चय से शाश्वत है, जहाँ दोनों की परस्पर मैत्री है। यही बात पुरुषार्थ सिद्धयुपाय लाल, पीले वस्त्रधारी आदि तो प्रत्यक्ष ही असाधु. कगुरु हैं पर जो जिनलिंग धारण मेंकहते हैं