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poun श्री श्रावकाचार जी येनाशेन सुदृष्टिस्तेनाशेनास्य बन्धनं नास्ति।
की मान्यता पूजा दर्शन आदि की बात करते हैं, नियम कराते हैं। या किसी लौकिक येनाशेन तु रागस्तेनाशेनास्य बन्धनं भवति ॥२१२॥
मूढता में फंसाते हैं। उनके जाल में फंसना कदेव अदेव आदि की पूजा, मान्यता, जितने अंश परिणामों में सम्यक्दर्शन है, उतने अंश में बंध नहीं होता है। र दर्शन आदि का नियम लेना और गुरुमानकर आहारदान आदि देना घोर मिथ्यात्व के जितने अंश रागभाव है, उतने अंश बंध होता है। इस बात को सम्यक्त्वी भले प्रकार बंध और नरक निगोद जाने का कारण हैं क्योंकि कुदेव अदेवादि की पूजा मान्यता जानता है, उसी प्रकार आचरण करता है, रागादि के निमित्तों से बचता है। वीतरागमय ग्रहीत मिथ्यात्व है। ढोंगी साधु भ्रष्ट आचरण करने वाले को दानादि देना पापबंध का रहने का पुरुषार्थ करता है। जो स्वयं ऐसा है, ऐसा रहे, ऐसा कहे-वही सच्चा गुरू है। कारण है; इसलिये बड़े विवेक से काम करना चाहिये, जिसमें अपनी श्रद्धा विचलित इसके विपरीत सब कुगुरु हैं। मूढ लोग ऐसे कुगुरु को गुरू मानकर ठगाये जाते हैं। न हो, किसी कुमार्ग में न फंस जायें। लौकिक प्रलोभन आत्मा का घात करने वाला है सम्यक्दृष्टि कभी भी कुगुरुओं को गुरू नहीं मानते।
है क्योंकि कुगुरु-कुधर्म, अधर्म का पोषण करने वाले होते हैं। जो इनकी बातों में लगते यहाँ कोई प्रश्न करे कि ठीक है कुगुरु की मान्यता वन्दना भक्ति नहीं करना हैं, इनकी आराधना भक्ति करते हैं, वह संसार में रुलते नाना दुःख भोगते हैं। इसी चाहिये, उनकी बात नहीं मानना चाहिये, उनकी बातों का विश्वास नहीं करना बात को आगे गाथा में कहते हैंचाहिये, परन्तु अभी हम गृहस्थ, संसारी व्यवहार में बैठे हैं तो लौकिक व्यवहार में
कुगुरु ग्रंथ संजुक्तं, कुधर्म प्रोक्तं सदा। नमस्कार आदि करना चाहिये या नहीं? तथा आहारदान आदि देना चाहिये या नहीं?
असत्य सहितो हिंसा,उत्साहं तस्य क्रीयते ॥११॥ उसका समाधान करते हैं कि लौकिक व्यवहार धार्मिक व्यवहार से भिन्न है। धार्मिक व्यवहार में सम्यक्त्वी धर्म पद्धति से व्यवहार करेगा; परन्तु लौकिक व्यवहार
ते धर्म कुमति मिथ्यातं,अन्यानं राग बंधनं । में लौकिक रीति से व्यवहार करेगा । लौकिक व्यवहार को लौकिक मानते हुए वS आराध्य जेन केनापि, संसारे दुष कारनं ॥ १२॥ लोक में प्रचलित लौकिक विनय करते हुए सम्यक्त्वी को श्रद्धान में कोई दोष नहीं अन्वयार्थ- (कुगुरु ग्रंथ संजुक्तं) कुगुरु बन्धन सहित होते हैं अर्थात् चौबीस आता । जैसे- राजा, हाकिम, अपने से बड़े सेठ आदि के पास जाते हुए या किसी प्रकार के परिग्रह में बंधे होते हैं (कुधर्म प्रोक्तं सदा) वे हमेशा कुधर्म की ही चर्चा त्यागी,साधु आदि को देखकर यथायोग्य विनय नमस्कार आदि करना, यह तोव्यवहार करते हैं, उसी में रत रहते हैं (असत्य सहितो हिंसा) हिंसा, झूठ आदि सहित होते विनय है। इससे लौकिक व्यवहार भी ठीक रहता है तथा विनम्रता आती है। लौकिक हैं (उत्साहं तस्य क्रीयते) और उत्साह पूर्वक यही सब करते रहते हैं। विनय करने से धार्मिक श्रद्धान में बाधा नहीं आती। व्यवहार में कटुता और द्वेष न २ (ते धर्म कुमति मिथ्यातं) वे कुमति मिथ्यात्व आदि को ही धर्म कहते हैं तथा फैले, इसकी संभाल सम्यक्त्वी रखता है । परस्पर प्रेम, मैत्री, सद्भावना विनय जो इसी को धर्म मानते हैं (अन्यानं राग बंधनं) अज्ञान और राग के बन्धन में बंधे रहते लोक प्रसिद्ध है, उसके करने से सबसे प्रेम मैत्री रहती है और सबको सुखदाई हैं (आराध्यं जेन केनापि) जो कोई भी ऐसे कुगुरुओं की, कुधर्म की आराधना करता हितकारी होती है। जहाँ धर्म की दृष्टि से कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र व कुधर्म की विनय हैया करेगा (संसारे दष कारनं) वह संसार में दुःख भोगेगा और दुर्गतियों में जायेगा। का भाव आयेगा उसको वह नहीं करेगा। किसी भय, आशा, स्नेह, लाज,लोभवश विशेषार्थ-जो परिग्रहधारी कगुरु हैं वह हमेशा कुधर्म को ही धर्म कहते हैं। भी विनय नहीं करेगा। इतनी दृढ़ता और विवेक आवश्यक है।
7 परिग्रह चौबीस प्रकार का होता है-दस बाह्य का और चौदह अन्तरंग का। गृहस्थ श्रावक को आहारदान आदि तो निरन्तर ही देना चाहिये परन्तु पात्र,
दस बाह्य परिग्रह-क्षेत्र (तीर्थ, मन्दिर, मठ,जमीन आदि), मकान, चांदी, कुपात्र, अपात्र की पहिचान कर लेना चाहिये। किसी भूखे को, असहाय को, वह
सोना, धन, धान्य, दासी, दास, वस्त्र और बर्तन। किसी भी जाति, सम्प्रदाय का हो करुणा पूर्वक आहारदान आदि देना पुण्य बन्धका ।
चौदह अंतरंग परिग्रह-मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, कारण, गृहस्थ का कर्तव्य है; परन्तु जो कुगुरु हैं जो जाल फैलाते हैं, कुदेवादि अरति.शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद।