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DON श्री श्रावकाचार जी
गाथा-९३,९४ you इस प्रकार चौबीस प्रकार के परिग्रह में लिप्त साधु कुगुरु होते हैं। वह हमेशा क्रोधादि विकार रूप बहुत दोष पाये जाते हैं, वह तो मुनि का वेष धारण करता है,तो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह रूप पांचों पापों में लगे रहते हैं यही कुधर्म कहा भी श्रावक के समान नहीं है । श्रावक सम्यक्दृष्टि हो और गृहस्थाचार के पाप है और इसमें वह बड़े उत्साह पूर्वक लगे रहते हैं और इसी को धर्म कहते हैं। तीर्थ, . सहित हो तो भी उसके बराबर वह केवल वेषधारी साधु-मुनि नहीं है। मन्दिर, मठ आदि बनवाना, जमीन-जायदाद आदि परिग्रह इकट्ठा करना, धर्म के
जे धीर वीर पुरिसा खमदम खम्गेण विप्फुरतेण। नाम पर धन जोड़ना, पुण्य को धर्म कहना। भगवान, परमात्मा, गुरु आदि का नाम
दुज्जयपबल बलुबरकसायभड णिज्जिया जेहिं ॥१५६॥ लेकर समाज को गुमराह करना, धर्म से विमुख करना और अपनी मनमानी चलाना, युद्ध में जीतने वाले शूरवीर तो लोक में बहत हैं: परन्तु कषायों को जीतने कुमति मिथ्यात्व, अज्ञान, रागादि को धर्म कहना और लौकिक व्यवहार मूढ मान्यताओं वाले विरले हैं। वे मुनि श्रेष्ठ हैं और वे ही शूरवीरों में प्रधान हैं, जो सम्यक्दृष्टि में बंधे रहना तथा इन्हीं बन्धनों में और सबको बांधना, फंसाना यही इनका काम है। होकर, कषायों को जीतकर, चारित्रवान होते हैं वे ही मोक्ष पाते हैं। जो कोई भी जीव ऐसे कुगुरुओं की आराधना, वन्दना,भक्ति करता है, वह कुधर्म के कुगुरु अधर्म को धर्म कहता है, अज्ञान को ज्ञान कहता है। अचेतन अदेवादि जाल में फंसकर संसार में नाना प्रकार के दु:ख भोगता है और दुर्गति में जाता है।ॐ की वन्दना करता है। शरीर की क्रिया को धर्म कहता है। यह सब संसार के ही
कुगुरु स्वयं तो संसार में रुलता और नरक निगोद आदि दुर्गतियों में जाता है कारण अधर्म हैं। इसी बात को आगे कहते हैंपरंतु जो जीव इनकी आराधना, वन्दना भक्ति करते हैं, इनकी संगति करते हैं, अधर्म धर्म प्रोक्तंच,अन्यानं न्यान उच्यते। इनकी बात पर विश्वास करते हैं, वह भी संसार में रुलते दुर्गति जाते हैं।
अचेतं असास्वतं वंदे,अधर्म संसार भाजनं ॥१३॥ हिंसा का परिणाम आचार्य कुन्दकुन्द भावपाहुड में कहते हैंपाणिवहेहि महाजस चउरासी लक्ख जोणि मज्झम्मि।
कुगुरुं अधर्म प्रोक्तंच,कुलिंगी अधर्म संचितं । उपजत मरतो पत्तोसि णिस्तर दुक्ख ॥ १३५॥
मानते अभव्य जीवस्य, संसारे दुष कारनं ॥ ९४ ।। जिनमत के उपदेश के बिना जीवों की हिंसा से यह जीव चौरासी लाख योनियों अन्वयार्थ-(अधर्मधर्म प्रोक्तंच) अधर्म,जो धर्म है ही नहीं उसे धर्म बताता में उत्पन्न होता है और मरता है। हिंसा से कर्म बन्ध होता है। कर्म बन्ध के उदय से है(अन्यानंन्यान उच्यते) अज्ञान को ज्ञान कहता है (अचेतं असास्वतं वंदे) अचेतन उत्पत्ति मरण रूप संसार होता है। इस प्रकार जन्म-मरण के दु:ख सहता है। और अशाश्वत की वंदना करता है (अधर्म संसार भाजन) यह सब अधर्म संसार मिथ्यात्व सहितसाधुदुर्गति जाता है
का ही पात्र बनाता है। कुच्छिय धम्मम्मि रओ कुच्छिय पासंडि भत्ति संजुत्तो।
(कुगुरुं अधर्म प्रोक्तं च) कुगुरु अधर्म की ही चर्चा करता है, अधर्म को ही कुच्छिय तवं कुणतो कुच्छिय गइभायणो होइ॥१४०॥ ॐ धर्म कहता है (कुलिंगी अधर्म संचित) कुलिंगी अधर्म को ही संचित करता अर्थात्
जो कुत्सित अर्थात् निंद्य मिथ्याधर्म में रत है, जो पाखंडी निंद्य भेषियों की अधर्म का ही पालन करता है (मानते अभव्य जीवस्य) अभव्य जीव ही इनकी भक्ति संयुक्त है। जो निंद्य मिथ्याधर्म पालता है, मिथ्यादृष्टियों की भक्ति करता है मान्यता श्रद्धान करते हैं (संसारे दुष कारनं) यह संसार में रुलाने वाले दु:ख के 0 और मिथ्या अज्ञान तप करता है, वह दुर्गति ही पाता है।
5 कारण हैं। ते च्चिय भणामि हंजे सयल कलासील संजम गुणेहिं।
विशेषार्थ- यहाँ बहिरात्मा के स्वरूप का वर्णन चल रहा है कि बहिरात्मा बहुदोसाणावासो सुमलिण चित्तो ण सावयसमो सो॥१५५॥
संसाराशक्त शरीरादि संयोगों को चाहने वाला कुदेवादि की मान्यता पूजा करता जो सम्यक्दृष्टि हैं, शील (उत्तर गुण) और संयम (मूलगुण) सहित हैं वह
है तथा कुगुरुओं के जाल में फंसकर संसार में चारगति चौरासी लाख योनियों के मुनि हैं। जो मिथ्यादृष्टि है अर्थात् जिसका चित्त मिथ्यात्व से मलिन है और जिसमें ।
जन्म-मरण का दु:ख भोगता है। कुगुरु कैसे होते हैं यहाँ उनका स्वरूप बताया
चार