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श्री आवकाचार जी
जा रहा है। कुगुरु अधर्म को धर्म बताता है। हिंसादि पाप हैं और वह हिंसा की क्रिया को धर्म कहता है। परिग्रह भी पाप है, वह आरंभ परिग्रह को धर्म बताता है, अदेव कुदेवादि की पूजा भक्ति को धर्म बताता है, बाह्य शुभाचरण संयम तप को धर्म कहता है। पाप और पुण्य दोनों कर्म हैं, कर्म को ही धर्म बताना यही तो अधर्म है। धर्म तो एकमात्र अपना चेतन लक्षण शुद्ध स्वभावी आत्मा ही है। इसकी साधना आराधना धर्म की साधना आराधना है, इसके विपरीत जो कुछ भी है वह तो कर्म, अधर्म ही है।
अज्ञान को ज्ञान कहता है, जो जैसा है नहीं उसे वैसा जानना ही अज्ञान है। संसार में सुख है ही नहीं, संसार अनादि अनन्त होते हुए भी क्षणभंगुर नाशवान, परिणमनशील है, इसमें सब वस्तुयें अनित्य हैं, संसार को सुखरूप मानना, जो अपना है ही नहीं उसे अपना मानना यही तो अज्ञान है। मैं एक अखण्ड अविनाशी चेतनतत्व ज्ञानानंद स्वभावी भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं यह मेरे नहीं, ऐसा जानना मानना ही सम्यक्ज्ञान है, इसके विपरीत जो कुछ है वह सब अज्ञान है। इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार कलश में कहा है
आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम् ।
परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ॥ ६२ ॥ आत्मा ज्ञान स्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है, वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्या करे ? आत्मा परभाव का कर्ता है, ऐसा मानना तथा कहना सो व्यवहारी जीवों का मोह अज्ञान है।
इसी बात को कुन्दकुन्दाचार्य समयसार में कहते हैं
ववहारेण दु आदा करेदि धडपडरथाणि दव्वाणि ।
करणाणि य कम्माणि य णो कम्माणीह विविहाणि ॥ ९८ ॥
व्यवहार से अर्थात् व्यवहारी जन मानते हैं कि जगत में आत्मा घट, पट, रथ इत्यादि वस्तुओं को और इंद्रियों को अनेक प्रकार के क्रोधादि तथा द्रव्य कर्मों को और शरीरादिनो कर्मों को करता है, ऐसी मान्यता ही व्यामोह भ्रांति अथवा अज्ञान है ।
अज्ञानी जीव कैसे होते हैं वह कहते हैं
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अज्ञानात्मृग तृष्णकां जलधिया धावन्ति पातुंमृगाः, अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः ।
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गाथा- २३,१४ अज्ञानाच्च विकल्प चक्र करणाद्वातोत्तरंगान्धिवत्, शुद्ध ज्ञानमया अपि स्वयममी कर्त्रीभवन्त्याकुलाः ॥
॥ समयसार कलश ५८ ॥
अज्ञान के कारण मृग मरीचिका में जल की बुद्धि होने से हिरण उसे पीने को दौड़ते हैं, अज्ञान के कारण ही अन्धकार में पड़ी हुई रस्सी में सर्प का अध्यास होने से लोग भय से भागते हैं। इसी प्रकार अज्ञान के कारण यह जीव पवन से तरंगित समुद्र की भांति विकल्पों के समूह को करने से, यद्यपि वे स्वयं शुद्ध ज्ञानमय हैं तथापि आकुलित होते हुए अपने आप कर्ता होते हैं। इसी प्रकार कुगुरु स्वयं अज्ञानी हैं अर्थात् उन्हें सत्य वस्तु स्वरूप का ज्ञान ही नहीं है, वह स्वयं अज्ञानमय हैं इसीलिये वह अनित्य और असत्य वस्तु को नित्य और सत्य कहते हैं, एकांत पक्ष का समर्थन करते हैं। अचेतन अदेवादि की वन्दना भक्ति करते हैं अशाश्वत, नाशवान शरीरादि की क्रिया, बाह्य वेष, बाह्य आचरण को वन्दनीय इष्ट मानते हैं, यह सब अधर्म में रत होने के कारण संसार को बढ़ाने वाला है।
कुगुरु अधर्म को धर्म कहता है, कुलिंगी अधर्म में ही रत रहता है। यहाँ बहुत महत्वपूर्ण बात समझने की है कि कुगुरु अधर्म को धर्म कहता है। कैसा होता है ? क्या करता है ? यह वर्णन तो सब पूर्व में आ गया है। यहाँ विशेष बात जो समझने की है वह यह है कि कुलिंगी अधर्म में ही रत रहता है। अब यहाँ कुगुरु और कुलिंगी में क्या भेद है यह समझना है।
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गुरू- जो कुछ सिखाता है, बताता है, उपदेश देता है उसे गुरु कहते हैं। जो सम्यक्ज्ञानी होता है जिसे वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान होता है, जिसे सत्य का निज शुद्धात्मा, परमात्मा का दर्शन अनुभूति हो गई है वही सद्गुरु है। शेष जो भी हैं वे सब कुगुरु ही हैं, क्योंकि जिसे स्वयं बोध नहीं है, वह पर को क्या बोध कराये, वैसे सामान्यतः साधु को ही गुरु कहते हैं। इसमें जाति सम्प्रदाय की अपेक्षा नाना वेषधारी साधु होते हैं। कोई नग्न दिगम्बर मुनि होते हैं, कोई सफेद वस्त्रधारी साधु मुनि होते हैं। कोई भगवा वस्त्रधारी जटाधारी नाना वेष के होते हैं।
ज्ञानी सद्गुरू - किसी जाति सम्प्रदाय वेष से बंधा नहीं होता, वह अपन स्थिति परिस्थिति के अनुसार रहता है। ज्ञानी का जीवन प्रामाणिक होता है, उसकी कथनी-करनी एक होती है। जैसी पात्रता होती है उस रूप उसका आचरण होता है, वैसा ही कथन करता है। उसे लौकिक प्रभावना जनरंजन राग नहीं होता, वह