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RSON श्री श्रावकाचार जी
गाथा-९३,९४ SO0 करुणा बुद्धि से जीवों को सही धर्म का स्वरूप बताता है और सम्यक् आचरण करने
सम्मूहदि रक्खेदि य अट्ट झाएदि बहुपयत्तेण। की प्रेरणा देता है।
सो पाव मोहिदमदी तिरिक्ख जोणी ण सो समणो॥५॥ कुगुरु-इसके विपरीत कुगुरु होता है। जिसका पूर्व में वर्णन आ ही चुका है। जो निर्ग्रन्थ लिंग धारण करके अर्थात् नग्न दिगम्बर साधु होकर परिग्रह को लौकिक प्रभावना जनरंजन धन संग्रह आदि कार्य धर्म के नाम पर कुगुरु ही करते हैं। संग्रह रूप करता है अथवा उसकी वांछा चिंतवन ममत्व करता है और उस परिग्रह
कुलिंगी धार्मिक आचरण करने, धर्म मार्ग पर चलने के लिये जो कोई भी रूपकी रक्षा करता है उसका बहुत यत्न करता है। उसके लिये आर्त ध्यान निरन्तर वेष बनाता है। नग्न रहे, वस्त्र पहने, जटा जूट रखे, परन्तु जो धर्म के विपरीत ध्याता है, वह पाप से मोहित बुद्धि वाला है, वह तिर्यंचगति जायेगा। वह अज्ञानी आचरण करता है, अधर्म में रत रहता है, वह कुलिंगी है; तथा जो सच्चा ज्ञानी है, साधु भी नहीं है। धर्म का यथार्थ स्वरूप समझता है और सम्यक् आचरण करता है, वह सुलिंगी है; भाव शुद्धि के बिना गृहस्थ पद छोड़कर साध हो जाये तो नरक जाता हैक्योंकि धर्म मार्ग पर चलने के लिये संसारी प्रपंच माया, मोह,पाप, परिग्रह से छूटने
जो जोडेदि विवाह किसि कम्मवणिज्जजीवघादं च । के लिये बाह्य में संयम, नियम, त्याग, वैराग्य आदि तो करना ही पड़ते हैं क्योंकि
बच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगि लवेण ॥ ९॥ द्रव्य संयम होने पर ही भाव संयम होता है। इसीलिये त्याग वैराग्य मय जीवन
गृहस्थ पद छोड़कर शुभ भाव के बिना लिंगी (साधु, त्यागी) हुआ था, इसके आवश्यक है और उसमें बाह्य वेष का परिवर्तन भी आवश्यक है। बगैर साधु त्यागीभाव की वासना मिटी नहीं, तब लिंगी का रूप धारण करके भी गृहस्थी के कार्य हए धर्म मार्ग पर चल भी नहीं सकते। अब इसमें जो सच्चा होता है, वह सुलिंगी करने लगा। आप विवाह नहीं करता है तो भी गृहस्थों के सम्बन्ध कराकर विवाह मोक्षमार्गी है, जो झूठा है वह संसारी है और धार्मिक वेष बनाकर स्वयं का पतन , कराता है; तथा खेती व्यापार जीव हिंसा आप करता है और गृहस्थों को कराता है
आत्मघात करता है, दुर्गतियों का कारण बनाता है, धर्म को बदनाम करता है। इसी तब पापी होकर नरक जाता है। ऐसे भेष धारने से तो गृहस्थ ही भला था, पद का बात को आचार्य कुन्दकुन्द लिंग पाहुड में कहते हैं
ॐ पाप तो नहीं लगता। धम्मेण होइ लिंग ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती।
आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके लिंग योग्य कार्य करता हुआ दःखी जाणेहि भावधम्म किं ते लिंगेण कायव्यो ॥२॥
रहता है। उन कार्यों का आदर नहीं करता, वह भी नरक जाता है। धर्म सहित तो लिंग होता है परन्तु लिंग मात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं होती;2
दसण णाण चरिते तव संजमणियम णिच्चकम्मम्मि । इसलिये हे भव्य जीव! तू भाव रूपधर्म को जान और केवल लिंग(बाह्य भेष) से ही
पीडयदि वट्टमाणो पावदि लिंगी णरयवासं ॥११॥ तेरा क्या कार्य होता है, अर्थात् कुछ भी नहीं होता है।
जो लिंग धारण करके इन क्रियाओं को करता हुआ बाध्यमान होकर पीड़ा आगे कहते हैं कि जो जिनलिंग, निर्ग्रन्थ, दिगम्बर रूप को ग्रहणकर कुक्रिया 3 पाता है , दुःखी होता है, वह लिंगी नरकवास को पाता है। वे क्रियायें क्या हैं? करके हंसी कराते हैं वे जीव पाप बुद्धि हैं
प्रथम तो दर्शन, ज्ञान, चारित्र में इनका निश्चय-व्यवहार रूप धारण करना। तप, जो पावमोहिदमदी लिंग घेत्तूण जिणवरिंदाणं।
अनशनादिक बारह प्रकार के तप शक्ति अनुसार करना। संयम, इन्द्रियों को और उवहसदि लिंगिभाव लिंगिम्मिय णारदो लिंगी॥३॥ 5 मन को वश में करना तथा जीवों की रक्षा करना। नियम अर्थात् नित्य कुछ त्याग 2 जो जिनवरेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर देव के लिंग नग्न दिगम्बर रूप को ग्रहण करना और नित्य कर्म आवश्यक आदि क्रियाओं को नियत समय पर नित्य : करके लिंगीपने के भाव को हास्य मात्र समझता है, वह लिंगी अर्थात् भेषी जिसकी करना यह लिंग के योग्य साधु की क्रियायें हैं। जो इन क्रियाओं को नहीं करता है बुद्धि पाप से मोहित है, वह नारद जैसा है तथा अन्य साधु मुनियों को लजाने, या करता हुआ खेद-खिन्न दु:खी होता है वह नरक जाता है। लिंग तीन प्रकार के बदनाम करने वाला है।
कहे गए हैं- साधु, श्रावक, आर्यिका या अव्रती सम्यकदृष्टि । इसमें वीतरागता