________________
७
श्री आवकाचार जी मूढ़ मिथ्यादृष्टियों की संगति करते हैं, वे जीव नरक जाते हैं। उन्हें शुद्धदृष्टि आत्म श्रद्धान नहीं होता तथा जो अचेतन मूर्ति आदि की पूजा वन्दना भक्ति करने और बाह्य क्रिया करने को धर्म कहते हैं, वे जिनद्रोही जिनेन्द्र के वचनों का लोप करने वाले हैं; क्योंकि जिनेन्द्र परमात्मा ने तो शुद्धात्म स्वरूप को धर्म कहा है
एगो मे सासदो अप्पा, णाण दंसण लक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ॥ | नियमसार गाथा - १०२ ॥
निश्चय कर मेरा आत्मा एक अविनाशी है, ज्ञान दर्शन लक्षण का धारी है। मेरे आत्मीक भाव के सिवाय अन्य सर्व भाव मुझसे बाहर हैं तथा सर्व ही भाव संयोग लक्षण हैं। इसके अतिरिक्त
अरहंत सिद्ध चेदिय, पवयण गणणाण भक्ति संपण्णो । बंधदि पुणं बहुसो, गहु सो कम्मक्खयं कुणदि ॥ ॥ पंचास्तिकाय - १६६ ॥
देव शास्त्र गुरु धर्म में, करता भक्ति महान । पुण्य बंध बहुविधि करे, नहीं कर्म क्षय जान ॥
तो जो धर्म के वास्तविक स्वरूप का लोप करते हैं, ऐसे मूढ़ जीवों का विश्वास करने से निश्चित ही निगोद में जाना पड़ता है। जिनेन्द्र भगवान ने जैसा अनेकान्त स्वरूप वस्तु को बताया है, शुद्धोपयोग को धर्म बताया है। संसार शरीर भोगों से वैराग्य सिखाया है। अहिंसा पालने को मुख्य कर्तव्य बताया है। वीतरागता ही इष्ट हितकारी है इत्यादि श्री जिन का जो उपदेश है, उस उपदेश का लोप करके जैन गुरु नाम धराकर जो ऐसे विपरीत, राग-द्वेष वर्धक, मिथ्यात्व पोषक उपदेश देना श्री जिनेन्द्र भगवान के साथ मानो द्रोह करना है, उनकी विराधना करना है। ऐसे मूढ़ कुगुरुओं के कथन पर जो विश्वास करते हैं उनके अनुसार चलते हैं, वे जीव नरक निगोद जाते हैं। वहाँ से निकलना बहुत दुर्लभ होता है। मकान, मठ, खेत, बाग आदि रखते हुए उनकी व्यवस्था और संभाल करते हुए तथा गद्दी तकिये पर शयन करते हुए राग वर्द्धक कथा वार्तालाप करते हुए पालकी आदि पर चढ़कर चलते हुए भी अपने को दिगम्बर जैन का गुरु मानकर लोगों से उसी समान भक्ति पूजा वन्दना करवाना, अपने को आचार्य समझना, अपने आडंबर के लिये लोगों को धर्म के नाम पर लूटना, धन पैसा इकट्ठा करना, खान-पान में मनमानी करना आदि क्रियायें श्री जिन वचनों का उल्लंघन करने वाली हैं।
२०७
SYA YA YA YA.
६४
गाथा ८८-९० G
जिनवाणी में परिग्रह को पाप कहा है। आरम्भ-परिग्रह रहित परम वैराग्यवान, इन्द्रिय विजयी, शुद्धात्म रमी को जिन साधु कहा है। जो अपने को जैन साधु मानकर जिन आज्ञा लोप कर विपरीत कहते, मानते व चलते हैं, भक्तों को भी यही विश्वास कराते हैं ऐसे जिन द्रोही, मिथ्यावादी कुगुरु पाषाण की नौका के समान स्वयं भी भव सागर में डूबते हैं, नरक निगोद जाते हैं तथा जो इनका विश्वास करते हैं, वह जीव भी भव संसार में डूबते, नरक निगोद जाते हैं; इसलिये ऐसे कुगुरुओं को नहीं मानना चाहिये। किसी भी लाज, भय, आशा, स्नेह, व्यवहारिकता से मानना दुर्गति का कारण है, इसी बात को आगे कहते हैं
दर्सन भुस्ट गुरुस्वैव, अदर्सनं प्रोक्तं सदा । मानते मिथ्या दिल्टी च, न मानते सुद्ध दिस्टितं ॥ ८८ ॥ कुगुरुं संगते जेन, मानते भय लाजयं । आसा स्नेह लोभं च, मानते दुर्गति भाजनं ॥ ८९ ॥ कुगुरुं प्रोक्तं जेन, वचनं तस्य विस्वासतं । विस्वासं जेन कर्तव्यं, ते नरा दुष भाजनं ॥ ९० ॥
अन्वयार्थ (दर्सन भृस्ट गुरुस्चैव) सम्यक्दर्शन से भ्रष्ट गुरु को ही (अदर्सनं प्रोक्तं सदा) हमेशा मिथ्यादृष्टि कहा है (मानते मिथ्या दिस्टी च) ऐसे मिथ्यादृष्टि कुगुरुओं को मिथ्यादृष्टि ही मानते हैं (न मानते सुद्ध दिस्टितं) सम्यकदृष्टि कभी नहीं मानते।
(कुगुरुं संगते जेन) जो जीव कुगुरु की संगति करते हैं (मानते भय लाजयं) तथा किसी लाज या भय से मानते हैं (आसा स्नेह लोभं च) अथवा किसी आशा स्नेह लोभ के वशीभूत होकर मानते हैं (मानते दुर्गति भाजनं) वे मनुष्य दुर्गति के पात्र होते हैं अर्थात् दुर्गतियों में रुलते रहते हैं ।
उनके वचनों पर विश्वास करते हैं (विस्वासं जेन कर्तव्यं) उसका विश्वास करना (कुगुरुं प्रोक्तं जेन) जो जीव, कुगुरुओं ने जो कहा है (वचनं तस्य विस्वासतं) अपना कर्तव्य मानते हैं (ते नरा दुष भाजनं) वे मनुष्य दुर्गति के पात्र बनते हैं अर्थात् दुर्गति में जाते हैं।
विशेषार्थ जो जिन आज्ञा का उल्लंघन करके, और का और जाने, माने तथा उपदेश करे अर्थात् अचेतन अदेवादि की पूजा उपासना व बाह्य क्रिया को धर्म
७०७