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श्री आवकाचार जी उसमें भोजन बनाने करने में भी क्या दोष है ?
जीव रव्या षट् कायस्य,संकये सद्धभावनं । उसका समाधान करते हैं कि सूर्य के अस्त होते ही छोटे-छोटे कीटाणु अपने आप पैदा हो जाते हैं तथा बिजली के प्रकाश में तो और नानाप्रकार के कीटाणु पैदा ५
मावर्ग सुध दिस्टीच, जलं फास प्रवर्तते ॥३०५॥ होते हैं और वह भोजन बनाने और करने में गिरते रहते हैं, जिससे जीव हिंसा होती जलं सुद्धं मनः सुद्धं च, अहिंसा दया निरूपनं। है तथा नाना प्रकार के रोग पैदा होते हैं। रात्रि भोजन करने वाले को अधिकांश सुख दिस्टी प्रमाणं च,अव्रतनावग उच्यते॥३०६॥ बदहजमी गैस होती है, वायु विकार की बीमारी बनी ही रहती है इसलिये रात्रि में
अन्वयार्थ- (पानी गलितं जेनापि) जो कोई पानी छानकर पीने का पालन भोजन बनाना और करना सभी प्रकार से हानिकारक है, धार्मिक दृष्टि से त्याज्य है किया करता है (अहिंसा चित्त संकये) जिसके चित्त में अहिंसा पालन का संकल्प ही, व्यवहार से भी स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है।
९ होता है (विलछितं सुद्ध भावेन) वह शुद्ध भाव से विलछितं अर्थात् बिलछानी,जो वास्तव में सन्तोष और इन्द्रिय विजय का भाव जिस गृहस्थ श्रावक में होता है,
हाताह पानी छानने के बाद कपड़े को उलटकर पानी बचता है यथास्थान पहुँचा देता है जो सच्चे धर्म का श्रद्धावान है उसको इन क्रियाओं के पालन करने में कोई कठिनाई
ना (फासू जल निरोधन) और प्रासुक जल को ढककर बन्द करके रखता है। नहीं होती। दया और अहिंसा की जहां भावना होती है वहां प्राणीमात्र के प्रति यह
(जीव रष्या षट् कायस्य) जिसे छह काय के जीवों की रक्षा का (संकये सुद्ध भावना रहती है कि किसी जीव का मेरे द्वारा मन वचन काय या किसी प्रकार के प्रमाद भावनाशद्ध भावना से संकल्प है (स्रावगं सुध दिस्टी च) वह शुद्ध दृष्टि श्रावक है से कोई अहित या घात न हो जाये तथा अपनी आवश्यकताओं को कम करना ही और जलं फास प्रवर्तते) प्रासक जलपानी छानकर गर्म कर सेवन करने का यथाविधि निराकुल रहने का मूलमंत्र है । इन्द्रिय विषयों की, शरीरादि संयोग की जितनी
है पालन करता है। आवश्कतायें बढ़ी रहती हैं,उतना ही जीव विकल्पित दुःखी रहता है और सबसे प्रमुख
(जलं सुद्ध मनः सुद्धं च) जहाँ जल शुद्ध है और मन शुद्ध है (अहिंसा दया यह खाने की समस्या है, इसी के लिये प्रत्येक मनुष्य नाना प्रकार के उद्यम उपद्रव
जहाँ अहिंसा और हया का राशाविधिपालन होता है सट टिस्टीपमान) करता है, इसी खाने के पीछे सारे पाप अनाचार अत्याचार होते हैं। जब तक जीव को
२. वही सच्चा शुद्ध दृष्टि है और (अव्रत स्रावग उच्यते) उसे ही अव्रती श्रावक कहते हैं।
लाभ खाने की भावना रहेगी तब तक वह संसार बंधन में बंधा रहेगा। अपनी संभाल
विशेषार्थ- अव्रत सम्यक्दृष्टि जघन्य पात्र अठारह क्रियाओं का पालन करता साधना करता हुआ जो जीव खाने की भावना से विरक्त हो जाता है वह संसार में
है, जिनका विशद् विवेचन करते हुए यहाँ अन्तिम क्रिया पानी छानकर पीने का रहता हुआ भी मुक्त हो जाता है इसलिये अव्रत सम्यकद्रष्टि इस बात का विवेक
! स्वरूप बताया जा रहा है। जिसे अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति हो गई, उसे रखता हुआ, खाने के बंधन से छूटने के लिये रात्रि भोजन आदि का त्याग करता है।
समस्त जीवों के प्रति प्रेम और करुणा होजाती है। अपने द्वारा किसी जीव का घात व्रती दशा में एक बार भोजन करता है, साधु पद में तो तप ही करने लगता है इसी
न हो, ऐसी अहिंसा की भावना और दया भाव होता है, इसी कारण अष्ट मूलगुण का प्रकार क्रम से मुक्ति का मार्ग बनता है।
पालन करता है, चार दान देता है, रात्रि भोजन त्याग करता है और पानी छानकर भोजन शुद्धि के साथ जल शुद्धि भी होना अत्यंत आवश्यक है इसलिये वह
पीता है जिससे छहकाय के जीवों की रक्षा होवे । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, ९ पानी छानकर ही पीता एवं सेवन करता है,यह अन्तिम अठारहवीं क्रिया है, जिसका विवेचन आगे किया जा रहा है
वायुकायिक, अग्निकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक (दो इन्द्रिय से पांच
इन्द्रिय तक) के जीवों की रक्षा करता है। पानी गालितं जेनापि, अहिंसा चित्त संकये।
___ अव्रती श्रावक अभी सामान्य गृहस्थ है, किसी प्रकार के व्रत नहीं लिये हैं परंतु विलछितं सुद्ध भावेन, फासू जल निरोधनं ।। ३०४॥ जितना हिंसादि पापों से बचे,संयम का पालन हो, ऐसी पवित्र भावना निरन्तर रहती
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