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04 श्री श्रावकाचार जी रात्रि भोजन त्याग है क्योंकि खाने के परिणाम ही जीव को विकल्पित करते हैं। इस संमिक्तं सुद्ध भावना) और न शुद्ध सम्यक्त्व की भावना है (श्रावगं तत्र न उत्पादंते) संबंध में स्मरण रखने योग्य यह है कि- १. जब तक खाना तब तक करना। उनमें अभी श्रावकपना पैदा ही नहीं हुआ (अनस्तमितं न सुद्धये) उनका अभी रात्रि २.जैसा खाना वैसा करना। ३. जितना खाना उतना करना। ४.जब तक करना तब , भोजन त्याग भी शुद्ध नहीं है। तक मरना। जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन,जैसा पिओ पानी वैसी निकले वाणी; (जे नरा सुद्ध दिस्टी च) जो मनुष्य शुद्ध सम्यकदृष्टि हैं (मिथ्या माया न ७ इसलिये रात्रि भोजन त्याग के साथ शुद्ध आहार जल भी होना चाहिये। वासा भोजन दिस्टते) जिनमें मिथ्यात्व मायाचार दिखाई नहीं देता (देवं गुरं सुतं सुद्ध) जो शुद्ध, अर्थात् एक दो दिन पूर्व का बना हुआया जिसका स्वाद बिगड़ गया हो तथा जो रात्रि वीतरागी देव, वीतरागी साधु-गुरु, वीतराग विज्ञानमयी शास्त्र,जिनवाणी को मानते का बना हो ऐसा भोजन भी नहीं करना चाहिये। रात्रि को पीसा हुआ आटा मसाला ८ हैं(संमत्तं अनस्तमितं व्रतं) वेसम्यक्त्वी ही रात्रिभोजन व्रत के पालनकर्ता हैं। आदि भी नहीं खाना चाहिये। गृहस्थ श्रावक को उचित है कि अपने यहाँ शुद्ध भोजन, विशेषार्थ- भोजन के चार भेद हैं-खाद्य, स्वाद्य. लेह्य और पेय जो इन चारों बनावे जो मनि आदि पात्रों को दान दिया जा सके और स्वयं भी शुद्ध भोजन पान का त्याग करते हैं तथा वासी भोजन व जिसका स्वाद बिगड़ गया हो ऐसा कोई भी करे, इससे परिणामों में निर्मलता रहती है।
आहार नहीं करते उनका रात्रि भोजन त्याग ही सही है और इस रात्रि भोजन त्याग की इसी बात को आगे और कहते हैं -
र सार्थकता तब है, जब अपने में कोई रागादि दोष न होवे, शुद्धात्म स्वरूप की साधना पादं स्वाद पीवं च, लेपं आहार क्रीयते । र तथा भावों की संभाल होवे, तभी अव्रत सम्यक्दृष्टि सच्चे रात्रि भोजन के त्यागी हैं। वासी स्वाद विचलंते,तिक्तं अनस्तमितं कृतं ॥ ३००॥ ८ जिन्हें अपने शुद्धात्म स्वरूप की खबर ही नहीं है, न जिन्हें अपने भावों की संभाल है, अनस्तमितं पालते जेन, रागादि दोष वंचितं ।
१ जिन्हें धर्म-कर्म का कोई विवेक नहीं है. जहां अभी श्रावकपना ही पैदा नहीं हआ
S अर्थात् जहां श्रद्धा विवेक क्रिया का कोई विचार ही नहीं है भले वह रात्रि भोजन न सुख तत्वं च भावं च, संमिक दिस्टी व पस्यते ॥३०१॥
5 करते हों परंतु उनका वह रात्रि भोजन त्याग शुद्ध नहीं है। जो जीव शुद्ध सम्यकदृष्टि सुद्ध तत्वं न जानते, न संमिक्तं सुद्ध भावना।
23 हैं, जिनमें कोई मिथ्यात्व मायाचारी नहीं है,जो सच्चे देव गुरु शास्त्र के श्रद्धानी हैं, श्रावगं तनन उत्पादंते,अनस्तमितं न सुद्धये ॥३०२॥ जिनका आचरण शुद्ध और भावना पवित्र है उन्हीं का रात्रि भोजन त्याग व्रत यथार्थ जे नरा सुख दिस्टीच, मिथ्या माया न दिस्टते।
१ सही है।
2 रात्रि भोजन करने से वैसे भी कई दोष दुःख और बीमारियाँ होती हैं,हिंसादि देवं गुरं सुतं सुद्धं, संमत्तं अनस्तमितं व्रतं ॥ ३०३ ॥
९. पाप तो प्रत्यक्ष होते ही हैं। रात्रि में भोजन बनने में अनेक जीवों की हिंसा होती है, अन्वयार्थ-(षादस्वादं पीवंच) खाद्य,स्वाद्य और पीने वाला पेय (लेपं आहार खाने से कई रोग पैदा होते हैं। बदहजमी आदि तो स्वाभाविक होती है तथा कीड़ी क्रीयते) लेहा पदार्थका आहार करना (वासी स्वाद विचलंते) वासा भोजन या जिसका खाने से बद्धिनाश और जलंधर रोग होता है मक्खी खाने से वमन होती है. मकडी स्वाद बिगड़ गया हो (तिक्तं अनस्तमितं कृतं) रात्रि भोजन त्याग करने वाले इनको खाने से कोढ हो जाता है, बाल खाने से स्वर भंग हो जाता है, बर्र ततैया के भोजन र छोड़ देते हैं (अनस्तमितं पालते जेन) जो रात्रि भोजन त्याग का पालन करते हैं। में आ जाने से वाय विकार शन्यपना हो जाता है इसलिये कभी भी रात्रि में भोजन नहीं 2 (रागादिदोष वंचित) रागादिदोषों से वंचित बचकर रहते हैं (सुद्ध तत्वं च भावंच) जो करना चाहिये तथा अंधेरे में भी भोजन नहीं करना चाहिये, जीव जन्तु नजर आ शुद्धात्मतत्व और भावों की संभाल रखते हैं (संमिक दिस्टीचपस्यते) वही सम्यक्दृष्टि उनको बचाते हुए दिन में भोजन करना चाहिये। देखे और कहे जाते हैं।
यहां प्रश्न आता है कि रात्रि में बिजली के प्रकाश में भोजन करने में कोई दोष । (सुद्ध तत्वं न जानते) जो शुद्ध तत्व शुद्धात्म स्वरूप को नहीं जानते (न नहीं है और आजकल तो रात्रि में भी बिजली द्वारा दिन जैसा ही प्रकाश रहता है तो