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You श्री आचकाचार जी
गाथा-२९७.२९९
७ चाहिये, उनसे मिलना बोलना भी नहीं चाहिये। जहां वह रहते हैं वहां जाना भी नहीं
अनस्तमितं कृतं जेन, मन वच कायं कृतं। जाना चाहिये क्योंकि इनकी संगति से दुर्गति जाना पड़ता है। अव्रत सम्यकदृष्टि को
सुद्धभावं च भावं च, अनस्तमितं प्रतिपालये॥२९८॥ अपनी श्रद्धा को दृढ रखते हुए इन सबसे दूर रहना चाहिये, व्यवहारिकता में विरोध आवे तो वह स्थान और देश भी छोड देना चाहिये परंतु अपनी श्रद्धा से नहीं
अनस्तमितं जेन पालते, वासी भोजन तिक्तये। डिगना चाहिये । जैसा जिनेन्द्र देव ने, वीतरागी सद्गुरुओं ने वस्तु का स्वरूप रात्रि भोजन कृतं जेन,भुक्तं तस्य न सुद्धये ॥ २९९ ॥ बताया है, आत्मा की स्वतंत्र सत्ता प्रतिपादित की है, उस पर अडिग रहना चाहिये, अन्वयार्थ- (अनस्तमितं वे घड़ियं च) अन्यऊ अर्थात् रात्रिभोजन त्याग कभी किसी कुदेव-अदेव आदि की पूजा भक्ति नहीं करना चाहिये क्योंकि - ८ करने वाले को सूर्य अस्त होने के दो घड़ी पहले भोजन कर लेना चाहिये (सुद्ध धर्म
मिथ्यात्व के समान महान पाप और कोई नहीं है, यह मिथ्यात्व ही परम, प्रकासये) ऐसा अहिंसा धर्म प्रकाशित करता है (साधं सुद्ध तत्वं च) जो शुद्धात्म दुःख की खानि है और सम्यक्त्व ही परम सुख है इसलिये मिथ्यात्व और स्वरूप के साधक हैं और (अनस्तमितं रतो नरा) अन्थऊ करने वाले मनुष्य अर्थात् मिथ्यादेव गुरु कासंग छोड़कर शुद्ध सम्यक्त्व अपने शुद्धात्मस्वरूप की साधना रात्रि भोजन के त्यागी हैं। करना चाहिये।
(अनस्तमितं कृतं जेन) जो अनस्तमितं अर्थात् अन्थऊ करते हैं (मन वच संगति का बड़ा भारी असर होता है, जैसी संगति होती है वैसे ही भाव और कार्य कतं) मन वचन काय से रात्रिभोजन त्याग करते हैं (सद्ध भावं च भावं च) और आचरण होने लगता है इसलिये विवेकवान श्रावक को अपने शुद्धात्म स्वरूप के शुद्ध भाव की भावना करते हैं (अनस्तमितं प्रतिपालये) वे रात्रिभोजन त्याग व्रत का श्रद्धान में हमेशा दृढ रहना चाहिये। किसी प्रकार के ग्रहीत-अग्रहीत मिथ्यात्व का प्रतिपालन करते हैं। पोषण न हो जावे, उस ओर की प्रवृत्ति न हो जाए इसलिये मिथ्यात्वी जीवों की संगति
(अनस्तमितं जेन पालंते) जो रात्रिभोजन त्याग व्रत पालते हैं (वासी भोजन से बचना चाहिये। इस बात की बड़ी आवश्यकता है कि शुद्ध सम्यक्त्व की रक्षा की तिक्तये) उन्हें वासी भोजन अर्थात् एक दो दिन पहले का बनाया हुआ नहीं खाना जाये,सम्यक्त्व में कोई दोष न लगाया जाये। मिथ्यादर्शन को भले प्रकार त्याग दिया चाहिये (रात्रि भोजन कतं जेन) जो रात्रि का बनाया भोजन करते हैं (भुक्तं तस्य न जाये। जिनकी संगति से विषय-कषायों में लीनता हो, मिथ्या पूजा पाठ वरूढ़ियों में सुद्धये) उनकी भोजन शुद्धि नहीं है अर्थात् उनका रात्रिभोजन त्याग सही नहीं है। जकडना पडे ऐसी संगति ही नहीं करना चाहिये और न इनको दान देना चाहिये,न विशेषार्थ-अनस्तमितं (अन्यऊ करना) अर्थात् रात्रिभोजन का त्याग करने लेना चाहिये। करुणा बुद्धि से हर एक प्राणी को आहार, औषधि, अभय व ज्ञानदान
वालों को सूर्य अस्त होने के दो घड़ी पहले भोजन कर लेना चाहिये और प्रातः भी सूर्य करना उचित है, उसमें पात्र-अपात्र का विचार नहीं है परंतु धर्म बुद्धि से श्रद्धा भक्ति
S उदय के दो घड़ी बाद ही अन्न जल ग्रहण करना चाहिये । शुद्ध वस्तु स्वरूप को पूर्वक दान देने और लेने में विवेक और संभाल रखना आवश्यक है। इस प्रकार अव्रत
बताने वाला यह अहिंसामयी जैन धर्म हिंसा से बचने के लिये ऐसा उपदेश करता है। सम्यकदृष्टि चार दान की प्रभावना करता है, जिससे उसका जीवन सरस, परिणाम
8जो शुद्धात्म स्वरूप के साधक श्रद्धानी मनुष्य (श्रावक) हैं वह इसका यथाविधि निर्मल और धर्म भावना की वृद्धि होती है।
पालन करते हैं। भोजन चार प्रकार का होता है-खाद्य,स्वाद्य, लेह्य,पेय। यहां तक अव्रत सम्यक्दृष्टि की अठारह क्रियाओं में सम्यक्त्व,अष्ट मूलगुण,5
१.खाद्य-अन्नादि का बनाया भोजन। २. स्वाथ-मुँह साफ करने के लिये। रत्नत्रय की साधना और चार दान की प्रभावना इन सोलह क्रियाओं का वर्णन हुआ।
लोंग इलायची पान सुपारी इत्यादि सुगंधित पदार्थ खाना। ३.ले- मलाई आदि आगे रात्रिभोजन त्याग का स्वरूप कहते हैं
चाटकर खाने वाली वस्तुएँ। ४. पेय-पीने वाले पदार्थ द्ध पानी आदि । रात्रि अनस्तमितं वे घड़ियं च, सुद्धधर्म प्रकासये।
भोजन त्याग करने वाले को इन चारों प्रकार के आहार का त्याग मन वचन काय से सार्थ सुद्ध तत्वं च, अनस्तमित रतो नरा ।। २९७ ॥ कर देना चाहिये, तभी भावों में शुद्धता आती है। भावों की शुद्धता होना ही सच्चा