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श्री श्रावकाचार जी
गाथा-४०५
७ स्नान भूषण वस्त्रादौ वाहने शयनासने।
पात्र भावना करना। ३. तीर्थ यात्रा करना, सत्संग आदि के द्वारा अपने द्रव्य का. सचित्तवस्तु संख्या प्रमाणं भज प्रत्यहं॥
सदुपयोग करना। ४. पात्रदत्ति- सत्पात्रों को श्रद्धा भक्ति पूर्वक आहार दान आदि भोगोपभोग परिमाण व्रत के पांच अतिचार-१.विषय भोगों में प्रीति करना, , कराना। ५. समदत्ति-जो साधु या अन्य गृहस्थ गरीब असहाय हों, रोगी दीन दु:खी ) हर्ष मानना। २. पूर्व काल में भोगे हुए भोगों का स्मरण करना। ३. वर्तमान भोग हों उनकी धन, वस्त्र आदि से यथायोग्य सहायता करना। ६.दयादत्ति-सभी दु:खीव
भोगने में अति लम्पटता रखना। ४. भविष्य में भोग प्राप्ति की अति तृष्णा करना। भूखे जीवों को अन्न, वस्त्र आदि से सहायता करना। ७. सकल दत्ति-अपनी सारी ५. विषय न भोगने पर भी विषय भोगने जैसा अनुभव करना।
सम्पत्ति अपने पुत्र आदिकुटुम्बी जन को या धर्मायतन में देकर सर्व परिग्रह से निर्ममत्व भोगोपभोगों के यम-नियम रूप परिमाण करने से विषयों की अति लम्पटता ८ होकर उत्तम श्रावक के व्रत या मुनिव्रत धारण करना। तथा वांछा घट जाती है, जिससे चित्त की चंचलता कम होती है और स्थिरता बढ़ने से । सम्यक्दृष्टि चारित्रवान दातार ही सच्चा दान देने का पात्र होता है। धर्म ध्यान में चित्त अच्छी तरह लगता है।
दातार के पांच भूषण-१. आनंद पूर्वक दान देना, २.आदर पूर्वक दान देना, (४)अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत-दाता और पात्र दोनों के रत्नत्रय धर्म की ३. प्रिय वचन पूर्वक दान देना, ४. निर्मल भाव पूर्वक दान देना, ५.दान देकर अपना वृद्धि के निमित्त, सम्यक्त्व आदि गुणों से युक्त गृह रहित साधु, मुनि आदि पात्रों की धन्य भाग्य मानना । ज्ञानी तथा श्रद्धावान दातारों में यह गुण अवश्य पाये जाते हैं। योग्य वैयावृत्ति करना अतिथि संविभाग या सत्पात्र दान कहलाता है।
पात्र के तीन भेद-१. उत्तम पात्र- सम्यक्दृष्टि निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु, मुनि, जो सत्पुरुष पूर्ण ज्ञान की सिद्धि के निमित्तभूत शरीर की स्थिति के लिये बिना आर्यिका। २.मध्यम पात्र-श्रावक,श्राविका।३.जघन्य पात्र-अविरत सम्यक्दृष्टि बुलाये ईर्यापथशोधन करते हुए, बिना तिथि निश्चित किये श्रावकों के घर भोजन के श्रावक। निमित्त आवें वे अतिथि कहलाते हैं। यह वृत्ति निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु तथा उत्कृष्ट यहां कोई प्रश्न करे कि वर्तमान समय में उत्तम पात्र की प्राप्ति तो दुर्लभ हो गई प्रतिमाधारी ऐलक-क्षुल्लकों में पाई जाती है; क्योंकि इनकी स्थिति एवं बिहार करने है फिर हम किसकी वैयावृत्ति करें, किसको दान देवें? की तिथि निश्चित नहीं रहती। ऐसे उत्तम पात्रों को द्वारापेक्षण आदि यथायोग्य उसका समाधान यह है कि यदि उत्तम पात्र न मिले तो मध्यम तथा जघन्य नवधाभक्ति पूर्वक अपने भोजन में से विभाग कर आहार, औषधि, पात्रादि दान देना, पात्रों की यथायोग्य सेवा, सहायता करो, उनके श्रद्धान ज्ञान चारित्र की वृद्धि का यदि उपर्युक्त प्रकार से अतिथि का संयोग न मिले तो मध्यम तथा जघन्य पात्रों एवं पूरा-पूरा यत्न करो जिससे वे उत्तम पात्र बनने के लिये उत्साहित हों। साधर्मियों की यथा योग्य आदर पूर्वक चार प्रकार दान द्वारा वैयावृत्ति करना या
पात्र दान के पांच अतिचार-१.दान में दी जाने वाली वस्तु हरित पत्र में दुःखितों व भूखों को करुणा बुद्धि पूर्वक दान देना यह सब अतिथि संविभाग है। . रखना। २. हरित पत्र से ढांकना। ३.अनादर से दान देना। ४. दान की विधि भूल
योग्य पात्र को आहार दान, औषधि दान,ज्ञान दान (शास्त्रदान) तथा अभय जाना या दान देने की सुधि न रखना। ५. ईर्ष्या बुद्धि से दान देना। दान में से जिस समय जिसकी आवश्यकता हो, उस समय उसी प्रकार का दान देना अतिथि संविभाग अर्थात् दान देने से लोभ आदि कषायों की मंदता होती है
योग्य है। इससे दातार तथा पात्र दोनों को रत्नत्रय की प्राप्ति, वृद्धि और रक्षा होती तथा धर्म और धर्मात्मा में अनुराग रूप परिणाम होने से तीव्र पुण्य का बंध होता है र है। पात्र, दातार, द्रव्य तथा दान देने की विधि के भेद से दान के फल में विशेषता तथा पात्र के शरीर की स्थिरता होने से धर्म साधन होकर उसे भी स्वर्ग, मोक्ष की 9 होती है।
प्राप्ति होती है। दान की प्रवृत्ति करने योग्य पात्र (स्थान) सात प्रकार के हैं- १. धर्मायतन, इस प्रकार बारह व्रतों का संक्षेप में वर्णन किया, व्रत प्रतिमाधारी इनका पालन चैत्यालय आदि में धर्म साधना के लिये शास्त्र आदि उपकरण दान देना। २.धार्मिक करता है, जिससे उसके परिणामों में निर्मलता आती है और अपने आत्म स्वरूपके आयोजन कर विशेष धर्म प्रभावना, प्रतिष्ठा, जिनवाणी पालकीजी आदि निकलवाना, चिंतन-मनन में उपयोग लगता है।