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श्री आचकाचार जी
गाथा-७०,७१R OO सातवें गुणस्थानवर्ती होते हैं और यह सब गुरू कहलाते हैं। सद्गुरू रत्नत्रय से जीव के भावों के निमित्त से कर्म बंधते हैं और कमों के उदय के निमित्त युक्त तो होते ही हैं अर्थात् सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से युक्त होकर से जीव के भाव होते हैं, ऐसा ही अनादि निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। अपने रत्नत्रयमयी स्वभाव का ध्यान करते हैं और जब रूपातीत ध्यान में लीन होते . अब, जब जीव ने अपने सत्स्वरूप को पहिचाना, भेदज्ञान के द्वारा वस्तु हैं तो अपनी शक्ति जो केवलज्ञानमयी ध्रुव तत्व शुद्ध प्रकाशं शुद्धात्म तत्व है वह * स्वरूप और इस निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध को जाना तथा फिर उसने अपने स्वभाव ७ प्रत्यक्ष व्यक्त स्वरूप अनुभव में आती है।
में रहने का पुरुषार्थ किया तो आसव-बंध रुक गया, संवर हो गया और पूर्व बद्ध इसी प्रकार ज्ञान ध्यान की साधना में रत रहने से कर्म अपने आप छूटते, कर्मों की निर्जरा होने लगी क्योंकि कर्मों का स्वभाव गलने विलाने का है, प्रति समय गलते, विलाते जाते हैं, आत्म ज्ञान बढ़ता जाता है। सम्यकदर्शन की प्रखरता होती उनका निर्झरण होता रहता है। इस बात को कमलबत्तीसी जी में श्री तारण स्वामी ने है, अपने ज्ञानानन्द स्वभाव में निरन्तर आनन्द मगन रहते हैं।
। बताया है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि अपने स्वभाव की साधना से कर्म कैसे गलते विलाते हैं?
कम्म सहावं विपन, उत्पत्ति षिपिय दिस्टि सभावं । इसका समाधान करते हैं कि कर्म कैसे बंधते हैं यह समझलो तो फिर कर्म कैसे
चेयन रूव संजुत,गलिय विलिय ति कम्म बंधान ॥ गलते, विलाते हैं, यह अपने आप समझ में आ जायेगा। तो देखो, जब जीव पर की
(कमल बत्तीसी गाथा-६) तरफ देखता है तो कर्मों का आस्रव होता है अर्थात कर्म वर्गणायें आती हैं तथा जीव कर्मों का स्वभाव षिपने, क्षय होने का है। इनकी उत्पत्ति और क्षय जीव की जब राग-द्वेष करता है, तो वह बंध जाती हैं। बंध चार प्रकार का होता है, योग से दृष्टि के सद्भाव पर है, यदि जीव की दृष्टि बाहर पर में है तो कर्मों की उत्पत्ति होती अर्थात् मन वचन काय का हलन-चलन और जीव के विभाव परिणमन से प्रकृति है और जीव की दृष्टि अपने स्वभाव पर है तो कर्मों का क्षय होता है। जीव अपने
और प्रदेश बन्ध होता है तथा कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ, अनन्तानुबंधी, चैतन्य स्वरूप शुद्ध स्वभाव में लीन हो जाये तो तीनों प्रकार के बंधे हुए कर्म गल अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान,संज्वलन तथा नोकषाय हास्य, रति, अरति,शोक,भय, जाते हैं बिला जाते हैं। जुगुप्सा,स्त्रीवेद,पुरुषवेद, नपुंसकवेद इनसे स्थिति और अनुभाग बन्ध होता है।
यह सिद्धान्त करणानुयोग के ग्रन्थ गोम्मटसार, धवल-महाधवल का सार अब यहाँ कोई पूछे कि जीव और पुद्गल दोनों भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं और एक है। कर्म तीन प्रकार के होते हैं-द्रव्य कर्म, भाव कर्म और नो कर्म । द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, सब द्रव्य अपने-अपने में पूर्ण स्वतंत्र हैं फिर द्रव्य कर्म-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय,मोहनीय, अन्तराय, नाम, आयु, यह कैसे होता है, यह तो सिद्धान्त विरुद्ध हो गया? तो उससे कहते हैं कि भाई! यह गोत्र और वेदनीय यह आठ होते हैं। सिद्धान्त विरुद्ध नहीं है। ऐसा जीव और पुद्गल का निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।
भाव कर्म- मोह, राग-द्वेष रूप जीव के विभाव परिणमन को कहते हैं। इसी के कारण यह जगत का परिणमन चलता है, अन्यथा सब संसार ही बिला नो कर्म- शरीरादि पुदगल की रचना नो कर्म कहलाती है। जब सद्गुरू जाये। हाँ,यह बात अवश्य समझना है और वह सत्य है कि जीव का परिणमन जीव अपने ध्यान में लीन होते हैं तो इन कर्मों में आग लग जाती है। इनकी असंख्यात में होता है। पुदगल का परिणमन पुदगल में होता है, वह दोनों अपने द्रव्य, गुण, गुणी निर्जरा होती है। यह जीव के पुरुषार्थ की शक्ति है। आत्मा तो अनन्त चतुष्टय पर्याय, सत्ता शक्ति से त्रिकाल भिन्न ही रहते हैं। एक क्षेत्रावगाह रहते हुए भी एक 5 का धारी परमब्रह्म परमात्म स्वरूप है, अपनी सत्ता शक्ति को भूला है। स्वयं का द्रव्य दूसरे द्रव्य को स्पर्श भी नहीं करता यह स्वतंत्र सत्ता है परन्तु एक दूसरे का ही विस्मरण हो गया इससे संसार में यह दुर्दशा हो रही है। इन सब बातों की निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। जैसे-सूर्य के प्रकाश तापसे पानी भाप बनकर उड़ता जानकारी सद्गुरू द्वारा ही होती है और जिस जीव की होनहार अच्छी होती है,X है और बादल बन जाता है, इसी प्रकार पुद्गल कर्मवर्गणा जीव के विभाव परिणमन से उसका कल्याण हो जाता है, सद्गुरू निमित्त कहलाते हैं। सद्गुरू के भीतर तो। कर्म रूप बंध जाती हैं।
करुणा बहती है वह तो समस्त जगत का कल्याण चाहते हैं। सब जीवों को सुखी