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RSON श्री श्रावकाचार जी
गाथा-७०,
१POON तरते हैं और दूसरों को तारते हैं इसलिये सद्गुरू तारण तरण कहलाते हैं।
१. मतिज्ञान-पांच इन्द्रियों और मन के द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार जो ऐसे सदगुरू का सुयोग इस जीव को मिल जाये तो बेड़ा पार हो जाये। सद्गुरू ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। मुख्य रूप से तो अपने ज्ञान-ध्यान, आत्म साधना में लीन रहते हैं। उन्हें तो . २.श्रतज्ञान- मतिज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ को विशेष रूप से जानना केवलज्ञान और सिद्ध पद ही इष्ट रहता है। आचार्य, उपाध्याय और साधु यह तीन श्रतज्ञान है। गुरू कहलाते हैं। अरिहन्त, परमगुरू कहलाते हैं।
३. अवधिज्ञान-जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा सहित इन्द्रिय अथवा शुद्धात्म स्वरूप का साधक सदगुरू अपनी साधना में लीन आगे बढ़ता है।
मन की सहायता के बिना रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। उससे क्या होता है? यह कहते हैं
४.मन:पर्ययज्ञान-जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा सहित इन्द्रिय न्यानं त्रितिय उत्पन्न, ऋजु विपुलं च दिस्टते।
" अथवा मन की सहायता के बिना ही दूसरे पुरुष के मन में स्थित रूपी पदार्थों को मनपर्जयं च चत्वारि, केवलं सिद्धि साधकं ॥७॥ प्रत्यक्ष जानता है उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं। रत्नत्रयं सुभावं च, रूपातीत ध्यान संजुतं ।
५.केवलज्ञान-समस्त द्रव्य और उनकी सर्व पर्यायों को एक साथ प्रत्यक्ष
जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। सक्तस्य विक्त रूपेन, केवलं पदर्म धुवं ॥१॥
प्रत्येक संसारी जीव को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो होते ही हैं। मिथ्यात्व के अन्वयार्थ- (न्यानं त्रितिय उत्पन्न) सद्गुरू जो अपनी साधना में लीन रहते ८ कारण वह कुमति, कुश्रुत कहलाते हैं और किसी संसारी जीव को अवधिज्ञान भी हो हैं, उन्हें तीसरा ज्ञान अवधि ज्ञान उत्पन्न हो जाता है (ऋजु विपुलं च दिस्टते), सकता है, वह कुअवधिज्ञान कहलाता है । सम्यकदर्शन होने पर सुमति,
और रिजुमति विपुतमति भी दिखने लगता है (मनपर्जयं च चत्वारि) यह मन: मर्यय सुश्रुत,सुअवधि कहलाते हैं। चौथा ज्ञान है (केवलं सिद्धि साधक) केवलज्ञान की सिद्धि की साधना तो चल ही मन:पर्यय और केवलज्ञान सम्यक्दृष्टि साधु को ही होते हैं। इस प्रकार ज्ञान रही है।
के आठ भेद होते हैं- कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, मति, श्रुत, अवधि, मन: पर्यय (रत्नत्रयं सुभावं च) रत्नत्रयमयी स्वभाव है ही (रूपातीत ध्यान संजुत) जब और केवलज्ञान। रूपातीत ध्यान में लीन होते हैं तब (सक्तस्य विक्त रूपेन) अपनी शक्ति प्रगट देव और नारकियों को जन्म से हीमति, श्रुत, अवधिज्ञान होता है पर मिथ्यात्व रूप में दिखने लगती है (केवलं पदम धुवं) जो केवलज्ञान मयी पद स्वरूप शुद्धं सहित होने से कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ही कहलाता है। सामान्य मनुष्य और प्रकाशं शुद्धात्म तत्वं और ध्रुव है।
तिर्यचों को मति श्रुतज्ञान तो होता ही है, अवधिज्ञान भी हो सकता है। विशेषार्थ- यहाँ सद्गुरू जो अपनी शुद्धात्म साधना में लीन रहते हैं, उन्हें
अवधिज्ञान की विशेषता- स्वयं की और पर की अगले पिछले जन्मों की तीसरा ज्ञान अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है और चौथा मनःपर्यय ज्ञान बातों को जान लेना यह विशेषता रहती है। मनः पर्ययज्ञान में-अगले पिछले जन्मों रिजुमति,विपुलमति भी दिखने लगता है। केवलज्ञान की सिद्धि की साधना तो करने की बातों के ज्ञान के साथ किसी के भी मन की बात जान लेने की विशेष क्षमता होती ही रहे हैं।
5 है। केवलज्ञान में तीन लोक, तीन काल की सर्व द्रव्यों की सर्व पर्यायें प्रत्यक्ष दिखाई ज्ञान पाँच होते हैं। जैसा तत्वार्थ सूत्र में कहा है
देती हैं। मति श्रुतावधि मन:पर्यय केवलानि ज्ञानम्॥९॥
सद्गुरू अपने स्वरूप की साधना करते हैं तो मति श्रुतज्ञान के साथ उन्हें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान यह पांच अवधि और मन:पर्यय ज्ञान भी प्रगट हो जाते हैं। चार ज्ञान तक के धारी आचार्य २ ज्ञान होते हैं।
उपाध्याय और साधु होते हैं। गणधर भी इसी श्रेणी में आते हैं और यह सब छठे..
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