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You श्री आचकाचार जी
गाथा-३३ POS श्री तारण स्वामी यहाँ जैन दर्शन का मर्म बता रहे हैं कि जिस समय सातों
स्वभाव, निमित्त, पुरुषार्थ,काल लब्धि और नियति। प्रकृतियों का विच्छेद यह बहुत महत्त्वपूर्ण शब्द है, विच्छेद अर्थात् अलग होना, संधि इन पाँचों के एक साथ एक समय में एक से होने पर ही कार्य होता है। अब होना, जिसे क्षय,उपशम, क्षयोपशम भी कहते हैं, जिस समय यह होता है,उसी , इनका भिन्न-भिन्न स्वरूप इस प्रकार है - समय सम्यकदर्शन दिखाई देने लगता है अर्थात् अपना शुद्ध स्वरूप दिखाई दे १.स्वभाव-द्रव्य की शक्ति,जो कार्यरूप से परिणत हो। जाता है।
२.निमित्त-सामने वाली शक्ति, जो कार्य होते समय उपस्थित रहे। यहाँ कोई प्रश्न करे कि इसका क्या प्रयोजन हुआ, यह क्यों नहीं कहते कि
३. पुरुषार्थ-उपादान की शक्ति। सात प्रकृतियों का क्षय,उपशम, क्षयोपशम होने पर ही सम्यक्दर्शन होता है ?
४.काललब्धि-तत्समय की योग्यता अर्थात उसी समय होना है। - इसका समाधान करते हैं कि ऐसा नहीं है, यह मिथ्यात्व आदि पुद्गल कर्म ५.नियति-सब निश्चित है, जिस समय जो होना है वह निश्चित है। पाँच वर्गणायें हैं,जीव चेतना स्वरूपी है, यह दोनों द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं, दोनों की सत्ता समवाय के इकठे हुए बिना कोई कार्य नहीं होता। जैसे- किसी मकान के दरवाजे शक्ति स्वतंत्र है । जीव-जीवमय है, पुद्गल-पुद्गलमय है। जीव जिस समयॐ पर पाँच ताले लगे हों और पाँचों की चाबी अलग-अलग व्यक्तियों के पास हों तो अपने शुद्ध स्वरूप को देखता है, उसे ही सम्यक्दर्शन कहते हैं। सात प्रकृतियों जब तक पाँचों व्यक्ति एक साथ एक समय में इकट्ठे नहीं होते तब तक दरवाजा के क्षय, उपशम, क्षयोपशम मात्र का नाम सम्यकदर्शन नहीं है; परन्तु ऐसा नहीं खुल सकता। इसी प्रकार जगत के प्रत्येक कार्य में यह पाँच समवाय सक्रिय हैं, निमित्त-नैमित्तिक संबंध है कि जिस समय जीव अपने स्वरूप को देखता है, उसी इनके बिना कोई कार्य नहीं होता। जैनदर्शन का स्याद्वाद तो इसी पाँच समवाय के समय इन सात प्रकृतियों का भी उपशम आदि होता ही है। जैसे-रात्रि का विलय र आधार पर टिका है, जो इसे नहीं जानता-मानता,वह तत्व का निर्णय, वस्तु स्वरूप और सूर्य का उदय, अब इसमें कौन आगे,कौन पीछे है, कौन पहले,कौन बाद में? ९. समझ ही नहीं सकता। कहने में एक समवाय की प्रधानता से बात कही जाती है जैसे-एक समय में यह होता है, वैसे ही एक समय में सम्यक्त्व होता है, मिथ्यात्व ए परन्तु साथ में चार समवाय भी गौण रहते हैं,यदि उन्हें भुला दिया तो एकान्तवाद विलाता है, कहने में तो कोई भी आगे पीछे कहने में आयेगा क्योंकि एक समय में हो जाता है, फिर अनेकान्त रह नहीं सकता। यह जगत की प्राकृतिक स्वतंत्र एक ही बात कही जाती है। यहाँ जीव और पुद्गल का निमित्त-नैमित्तिक संबंध है, व्यवस्था के पाँच आधार हैं, जिसके अनुसार पूरे विश्व का परिणमन चल रहा है। कर्ता-कर्म संबंध नहीं है, यदि कर्ता कर्म सम्बन्ध मानेंगे तो द्रव्य की स्वतंत्रता जो ऐसा प्रश्न करता है कि ऐसा क्यों हुआ, ऐसा नहीं ऐसा होना था, उसे अभी वस्तु समाप्त हो जायेगी, एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य कर्ता बन जायेगा जो सिद्धान्त स्वरूप का ज्ञान नहीं है, पाँच समवाय की खबर नहीं है, वह अभी अज्ञानी है। विरुद्ध है।
अब प्रश्न कर्ता कहता है कि इस बात से तो यह सब समस्या सुलझ गई यहाँ प्रश्न कर्ता पुन: प्रश्न करता है कि यह एक समय में कैसे और क्यों हुआ परन्तु अब एक प्रश्न और है कि यह सम्यक्दर्शन जीव को कब और कैसे होता है, क्योंकि जब दो द्रव्य स्वतंत्र और भिन्न हैं फिर दोनों का ऐसा परिणमन एक समय में क्या इसका भी कोई विधान है? क्योंकि चाहते तो सभी जीव हैं कि हमें सम्यक्दर्शन क्यों हुआ?
हो जाये, हम मुक्त हो जायें यह संसार के दु:खों में तो कोई रहना ही नहीं चाहता, इसका समाधान करते हैं कि इस बात को समझने के लिये जैनदर्शन का मूल पर कोई विरला जीव ही छूट पाता है,इसका क्या कारण है? आधार जो पाँच समवाय हैं, उसे जानना बहुत जरूरी है क्योंकि उसके जाने बिना इसका समाधान करते हैं कि अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल शेष रहने पर यह बात समझ में ही नहीं आयेगी।
काललब्धि आने पर सम्यकदर्शन होता है और काललब्धि पाँचलब्धियों की पूर्णता यहाँ प्रश्न कर्ता कहता है कि यह पाँच समवाय क्या हैं इन्हें संक्षेप में समझाइये? होने पर आती है। समवाय अर्थात् बराबरी की स्वतंत्र शक्ति और वह पाँच हैं।
यह अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल और पाँच लब्धियाँ क्या हैं इनका संक्षेप में
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नाबना