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श्री श्रावकाचार जी तो अब यह बताओ कि यह सब भिन्न अलग-अलगजीव आत्मा ऐसे क्यों हैं. तो आप इस संबंध में,जो अपना विषय चल रहा है इसे तो बताइये? अर्थात् मनुष्य भव में भी यह नाना विभिन्नतायें और पशु-पक्षी आदि जीव भी ऐसे देखो भैया, इसे हम संक्षेप में बता रहे हैं कि वास्तविकता क्या है। विशेष क्यों हैं?
जानने के लिये स्वयं ही चिन्तन मनन अध्ययन करना। तो सर्वप्रथम शरीर की और कहते हैं यह सब अपने-अपने कर्मों के अनुसार होते हैं।
जीव की भिन्नता भासित हो गई कि यह शरीर अलग है और जीव आत्मा अलग है इसका क्या मतलब है, स्पष्ट बताओ?
और यह जीव आत्मा ही परमात्मा होता है । यह सभी दर्शनों में कहा है, कथन ऐसा कहते हैं और देखने में भी आता है कि जो जीव जैसे अच्छे-बुरे, पद्धति भिन्न-भिन्न है। बात एक ही है और धर्म का मूल आधार भी यही है कि इस पाप-पुण्य कर्म करता है, उसी अनुसार उसका फल भोगता है। इस संसार में जीव की दृष्टि पर से हटकर अपनी तरफ होवे, अपने आत्मकल्याण का लक्ष्य बनावे चारगति, चौरासी लाख योनियाँ हैं और उनमें अनन्त जीव अनादिकाल से भ्रमण तो जीवन में सुख शांति आवे और राग-द्वेष, पापादि विषय-कषाय, मोह के छूटने कर रहे हैं।
S पर कर्म बन्ध और जन्म-मरण से छुटकारा होजावे। सिद्धांत यह है कि प्रत्येक जीव तो अब यह बताओ कि यह अनन्त जीव अनादिकाल से ऐसा परिभ्रमण क्यों में स्वतंत्र है और यही आत्मा से परमात्मा होता है। प्रत्येक जीवात्मा में परमात्म शक्ति कर रहे हैं? अगर एक ईश्वर के अंश होते तो सबको एक समान एक सा ही होना विद्यमान है। यह निज सत्ता शक्ति का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करे तो परमात्मा हो चाहिये था, सबको एक साथ जीना-मरना, सुखी-दुःखी होना चाहिये था, फिर जावे। संसार की परम्परा में सभी एक मत हैं कि जो जीव जैसे कर्म करता है, उस यह विभिन्नतायें क्यों हैं?
R अनुसार वह सुख-दुःख भोगता है। चारगति चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण कहते हैं यह सब उस परमात्मा की लीला है।
२ करता है तथा जीव के सत्ता स्वरूप को भी सबने एक सा ही माना है। जीव, अरूपी, पर लीला का मतलब तो यह होता है कि एक व्यक्ति अनेक रूप धारण करे, निराकार,अजर-अमर, अविनाशी चैतन्य लक्षण वाला ज्ञान और आनन्द मयी सुख अनेक प्रकार के स्वांग करे; लेकिन एक समय में एक प्रकार का ही रूप और स्वभावी है। यह बात सभी दर्शन स्वीकार करते हैं। शरीर की रचना जन्म-मरण, स्वांग कैसे कर सकता है, यह एक समय में ही अनन्त रूप और अनन्त स्वांग और कर्मफल भोगना सबमें एक समान है। शब्दों की भिन्नता से अज्ञानियों ने मत-मतान्तर अलग-अलग दशाओं में परिणमन होना कैसे सम्भव है? तथा एक जीव से दूसरे भेदभाव पैदा कर दिये हैं। जीव को जाति सम्प्रदाय के बंधनों में उलझा दिया। ज्ञानी जीव की प्रकृति परिस्थिति कर्मोदय सब अलग-अलग ही होते हैं। इस कारण यह को तो कभी भेदभाव होता ही नहीं है। जो अध्यात्मवादी हैं अर्थात् आत्मकल्याण के किसी भी युक्ति आगम प्रमाण से ठीक नहीं बैठता है?
इच्छुक हैं उन्हें तो कोई भेदभाव नहीं है । सत्य और परमतत्व तो एक ही है परंतु तो अब आप ही बताओ कि यह सब क्या है और कैसा है, यह भेदभाव संसारी, अज्ञानी जीवों के अनेक मत और भेदभाव हैं। यहाँ अपने समझने की बात मान्यता कैसे मिटे, इसे समझाओ?
१ समझें,सत्य को स्वीकार करें तो अपना भला होवे। देखो भैया, संसार तो अनादि अनन्त है और अनन्त जीव हैं। सबकी बुद्धि आपकी चर्चा से तो सब बात ही स्पष्ट हो गई, कोई भेदभाव की बात ही नहीं होनहार कर्मोदय परिस्थिति भी भिन्न-भिन्न हैं तो सबको एक करना तो असम्भव रही। अब जो भेदभाव माने उसकी वह जाने परन्तु आत्म कल्याण का मार्ग तो है। हाँ,जो भव्य जीव समझना चाहे वह सत्य को समझकर अपना भला कर सकता 5 सबका एक ही है कि अपने सत्स्वरूप की श्रद्धा करे, ज्ञान करे और तदनुसार आचरण 9 है। यहां किसी को समझाया नहीं जा सकता, परन्तु जो समझना चाहे, सुधरना करे तो प्रत्येक जीव आत्मा परमात्मा हो सकता है। चाहे वह समझ सकता है. सुधर सकता है, ऐसा शुभ योग वर्तमान में मिला है। मनुष्य इसी अभिप्राय को लेकर तारण स्वामी ने प्रत्येक मानव मात्र को आत्म कल्याण भव है, बुद्धि है, विवेक है, सद्गुरू और सत्शास्त्र के माध्यम से अपना भला कर करने के लिये प्रेरित किया, उन्होंने सब जाति-पांति के बन्धनों को तोड़कर मानव सकता है।
मात्र को धर्म का वास्तविक स्वरूप बताया और इसी की साधना आराधना में रत