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You श्री आचकाचार जी
गाथा-५,६ DOO रहकर वह स्वयं मुक्ति मार्ग पर चले।
नमस्कार करता हूँ। इसी क्रम में आगे भी इसको और स्पष्ट करते हैं
विशेषार्थ- मैं भगवान महावीर को नमस्कार करता हूँ। किसे ? क्या राजा अनंत दर्सनं न्यानं, वीज नंत अमूर्तयं ।
. सिद्धार्थ के बेटे महावीर को? नहीं। तो क्या जिस शरीर का नाम महावीर था उसे? विस्व लोकं सुयं रूपं, नमामिहं धुव सास्वतं॥५॥
* नहीं,जो केवलज्ञान, केवलदर्शन में अपने अरूपी,शाश्वत, अविनाशी, सिद्ध स्वरूप ७ अन्वयार्थ- (नमामिहं धुव सास्वतं) मैं उस ध्रुव शाश्वत शुद्धात्म तत्व को
१२ को प्रत्यक्ष व्यक्त रूप में देख रहे हैं अर्थात् जो ज्ञानानंद स्वभावमय ही हैं। तारण
ॐ स्वामी यहाँ उसे नमस्कार कर रहे हैं जो जीव का शुद्ध स्वरूप है, क्यों कर रहे हैं? नमस्कार करता हूँ (विस्व लोकं सुयं रूपं) जो समस्त विश्व में स्व रूपवान है
इसलिये कि यह उन्हें भी इष्ट प्रयोजनीय है। वह भी वैसे ही होना चाहते हैं इसलिये (अनंत दर्सनं न्यानं) अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान (वीर्ज नंत अमूर्तयं) अनन्त वीर्य
है उस स्वरूप को नमस्कार कर रहे हैं। अनन्त सुखमयी अमूर्तीक है।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि इससे तो यही सिद्ध हआ कि पर के निमित्त, पर के विशेषार्थ- ध्रुव अर्थात् त्रिकाली, शाश्वत अर्थात् अनादि अनन्त काल तक
र आश्रयपने से ही स्व का बोध होता है। पर के अवलम्बन से ही धर्म और मोक्ष की रहने वाला समस्त विश्व लोक में स्वरूपवान अर्थात् जो हमेशा अपने स्वरूप में ही पाप्ति होती है। रहता है। जो अनादि से अचेतन पुद्गल के साथ रहता हुआ भी जिसका एक प्रदेश
उसका समाधान करते हैं कि यहाँ तो समझ में ही विपरीतपना हो गया। किस भी अचेतन-पुद्गल रूप नहीं हुआ। जिसने ज्ञानमयी स्वसत्ता को कभी छोड़ा नहीं 2 अभिया
नहा अभिप्राय अपेक्षा से क्या बात कही जा रही है इसको भी ध्यान में रखना चाहिये; है। जो अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान,अनन्त सुख, अनन्त वीर्यमयी अमूर्तीक है, ऐसेयोकि
वायमचा अमृताकह, ए, क्योंकि जैनागम में चार अनुयोग और निश्चय-व्यवहार नय की अपेक्षा कथन है, शुद्धात्म तत्व अर्थात् निज के सत्स्वरूप को मैं नमस्कार करता हूँ। यह है ज्ञानी.
र करता है। यह हशाना उसका ज्ञान होना आवश्यक है इस ज्ञान के बिना तत्व के निर्णय, वस्तु स्वरूप को साधक की अपने इष्ट की आराधना । वर्तमान कर्म संयोग में रहता हुआ भी अपने
"मरहता हुआ भा अपन नहीं समझा जा सकता। यहाँ तारण स्वामी को मूल में तो अपना स्वलक्ष्य ही है और सत्स्वरूप को ऐसा देखता है और उसी की सतत् वन्दना भक्ति करता है क्योंकि
8 अपने सत्स्वरूप की साधना-आराधना में ही रत हैं। धर्म और मोक्ष की उपलब्धि कहा है- यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी । जो जैसी भावना करता है,
अस्व के लक्ष्य से ही होती है। जब तक पर का लक्ष्य, पर का अवलम्बन रहेगा, तब उसको वैसा ही फल मिलता है।
2 तक तीन काल में भी धर्म और मोक्ष नहीं मिल सकता। यहाँ तो जिन्होंने अपने उस बंधा मिला है बंधे को,छूटे कौन उपाय ।
सत्स्वरूप को उपलब्ध कर लिया है। अपने में उस सत्स्वरूप का बहुमान जगाने के कर सेवा निबंध की, पल में लेय छुड़ाय ॥
९. लिये उनका स्मरण और नमस्कार किया है कि देखो उन्होंने भी इस मार्ग से, इस इसी क्रम में तारण स्वामी ने उन भगवान महावीर को नमस्कार किया है
प्रकार ऐसे अपने सत्स्वरूप को पा लिया, तुम भी पुरुषार्थ करो, इस अभिप्राय से जिन्होंने ऐसे अपने सत्स्वरूप को पा लिया, उसी मय हो गये।
स्मरण और नमस्कार किया है तथा व्यवहार में अपनी कृतज्ञता प्रगट की है ; क्योंकि नमस्कृतं महावीरं, केवलं दिस्टि दिस्टितं ।
तारण स्वामी, भगवान महावीर स्वामी के समवशरण के प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं। भगवान विक्त रूपं अरूपं च, सिद्ध सिद्धं नमामिहं ॥६॥ 5 महावीर की दिव्य ध्वनि में जो धर्म का स्वरूप आया, इसे तारण स्वामी ने सुना अन्वयार्थ- (नमस्कृतं महावीरं) महावीर भगवान को नमस्कार करता हूँ
समझा है और धर्म की महिमा अतिशय को प्रत्यक्ष देखा है, इस उपकार को चुकाने (केवलं दिस्टि दिस्टितं) जो केवल दर्शन में देख रहे हैं (विक्त रूपं अरूपं च)
जी के लिये नमस्कार किया है। धर्म की उपलब्धि स्व का बोध सम्यक्दर्शन, पर के अपने अरूपी स्वरूप को प्रत्यक्ष व्यक्त रूप में (सिद्ध सिद्धं नमामिहं) इसी से आश्रय पर के अवलम्बन से कभी नहीं होता। वह तोस्व के आश्रय,स्व के अवलम्बन अपने सिद्ध स्वरूप को सिद्ध कर लिया,पा लिया है, मैं ऐसे सिद्ध स्वरूप को र
से ही होता है। निमित्त का बहुमान, स्वीकारता ही ज्ञानी की पहिचान है।