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श्री श्रावकाचार जी हैं. वह कैसे होते हैं, उनका स्वरूप बताया जा रहा है-जो रागादि दोषों से संयुक्त, (कर्मना असहभावस्य) क्रिया और भावों से जो हमेशा अशुभ में ही प्रवर्तन करते हैं तीन कुज्ञान से परिपूर्ण, वैक्रियक शरीर के धारी देव- भूत, पिशाच, यक्ष, व्यन्तर (कुदेवं अनृतं परं) यह सब झूठे कुदेव ही हैं। आदिभवनवासी, व्यन्तर,ज्योतिषी देव हैं, यह सब कुदेव हैं क्योकि इनमें सम्यक्ज्ञान विशेषार्थ-यहाँ कदेवों का वर्णन चल रहा है कि कुदेव किसे कहते हैं? कुदेव का अंश भी नहीं होता है, यह सब मिथ्यादृष्टि ही होते हैं तथा वैमानिक देव इन्द्रादि कैसे होते हैं? जिनका आर्त और रौद्र रूप स्वभाव ही है। जो हमेशा मायाचारी में लगे भी पूर्णज्ञानी सच्चे देव नहीं होते। इनमें कोई सम्यकदृष्टि भी होवे तो देवगति में सब
रहते हैं, क्रोधी होते हैं, जो क्रिया से भी अशुभ प्रवर्तन करते हैं तथा जिनके हमेशा असंयमी चतुर्थ गुणस्थानवर्ती होते हैं। जहाँ संयम भी नहीं होता, इन्हें किसी भी
5 खोटे भाव ही रहते हैं यह सब झूठे कुदेव हैं। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी यह लोकिक कामना से पूजना मानना, गृहातआर अगृहातमिथ्यात्व का पाषण करनाह तीनों मिथ्यादृष्टि ही होते हैं और मिथ्यादृष्टि हमेशा आर्त-रौद्र ध्यान और अशुभ जो दुर्गति का कारण है।
है भावों में ही रत रहते हैं यह सब झूठे कुदेव हैं। यह कुदेव और कैसे होते हैं ? इसको कहते हैं
इन कुदेवों की जो मान्यता पूजा भक्ति करता है, उसका क्या होता है इसको माया मोह ममत्तस्य,असुहभाव रतो सदा।
कहते हैंतत्र देवं न जानते, जत्र रागादि संजुतं ॥५३॥
अनंत दोष संजुक्त,सुद्धभाव न दिस्टते। अन्वयार्थ- (माया मोह ममत्तस्य ) जो माया, मोह और ममता में लीन हैं कुदेवं रौद्र आरूढं, आराध्यं नरयं पतं ॥५५॥ (असुह भाव रतो सदा) सदा अशुभ भावों में ही रत रहते हैं (जत्र रागादि संजुतं)
कुदेवं जेन पूजते,वन्दना भक्ति तत्परा। जहाँ तक रागादि सहित जो हैं (तत्र देवं न जानते) वहाँ तक किसी को देव मत,
ते नरा दुष साहंते,संसारे दुष भीरुहं ॥५६॥ जानो। विशेषार्थ- कुदेव कैसे होते हैं यह बताया जा रहा है कि जो माया मोह और
कुदेवं जेन मानते, स्थानं जेवि जायते । ममता में लीन हैं अर्थात् वैक्रियक शरीर द्वारा नाना प्रकार मायाचारी शरीरादि की ते नरा भयभीतस्य, संसारे दुष दारुनं ॥ ५७॥ रचना करते हैं. मोह और ममता में लीन रहते हैं तथा हमेशा अशुभ भावों में ही रत
अन्वयार्थ- (अनंत दोष संजक्तं) जो अनंत दोषों सहित हैं (सुद्ध भाव न रहते हैं, ऐसे भूत पिशाच व्यन्तर आदि सभी देव कुदेव हैं तथा जहाँ तक जो भी दिस्टते) जिनके कभी शुद्ध भाव नहीं दिखते (कुदेवं रौद्र आरूढं) जो रौद्र रूप ही राग-द्वेष आदि से संयुक्त हैं वे सब कुदेव हैं, उन्हें देव नहीं मानना चाहिये; क्योंकि धारण किये रहते हैं वे सब कुदेव हैं (आराध्यं नरयं पतं) इनकी आराधना करने से सच्चा देव निश्चय से तो निज शुद्धात्म तत्व ही है और व्यवहार में जो वीतरागी, ९ नरक में पतन होता है। सर्वज्ञ, हितोपदेशी अरिहन्त परमात्मा हैं, वही सच्चे देव हैं। अन्य किसी को भी (कुदेवं जेन पूजते) कुदेवों कीजो जीव पूजा करते हैं (वन्दना भक्ति तत्परा) सच्चा देव मानना संसार का ही कारण है। कुदेव की और क्या विशेषता होती है २ वन्दनाभक्ति में तत्पर रहते हैं (तेनरा दुष साहंते) वे मनुष्य दुःख भोगते हैं (संसारे इसे अगली गाथा में कहते हैं
5 दुष भीरुह) संसार में दु:खी और भयभीत रहते हैं। आरति रौद्रं च सद्भाव, माया क्रोधं च संजुतं ।
(कुदेव जेन मानते) कुदेवों को जो जीव मानते हैं (स्थानं जेवि जायते) कर्मना असुह भावस्य, कुदेवं अनृतं परं ॥५४॥
उनके स्थानों पर जाते हैं (ते नरा भयभीतस्य) वे मनुष्य बहत भय से भयभीत । अन्वयार्थ-(आरति रौद्रं च सद्भाव) जिनका आर्त और रौद्र रूप रहना स्वभाव
रहते हैं (संसारे दुष दारुन) संसार में दारुण दु:ख भोगते हैं। रही है (माया क्रोधं च संजुतं) जो हमेशा मायाचारी में लगे रहते हैं, क्रोधी होते हैं ।
विशेषार्थ- यहाँ कुदेवों का स्वरूप और उनके मानने वालों की दशा का