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ॐ श्री आवकाचार जी
वर्णन किया जा रहा है। जो अनन्त दोषों सहित हैं, जिनके कभी शुद्ध भाव होते ही नहीं हैं। जो रौद्र भयानक विकराल रूप धारण किये रहते हैं वे सब कुदेव हैं। इनकी आराधना करने से नरक में पतन होता है। जो जीव कुदेवों की पूजा करते हैं उनकी वन्दना भक्ति में लगे रहते हैं वे मनुष्य दुःख भोगते हैं, संसार में दु:खी और भयभीत रहते हैं। जो जीव कुदेवों को मानते हैं उनके स्थानों पर जाते हैं, वे मनुष्य बहुत भय से भयभीत रहते हैं, संसार में दारुण दुःख भोगते हैं। इसी बात को रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है
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वरोपलिप्सयाशावान्, राग द्वेष मलीमसाः ।
देवता यदुपासीत्, देवता मूढमुच्यते ॥ २३ ॥
अर्थ- अपने वांछित होय ताकूं वर कहिये। वर की वांछा करके आशावान हुआ संता जो रागद्वेष करि मलीन देवता कूं सेवन करै सो देवमूढ़ता कहिए है ।
विशेष- संसारी जीव हैं ते इस लोक में राज्य सम्पदा, स्त्री-पुत्र, आभरण, वस्त्र, वाहन, धन, ऐश्वर्यनि की वांछा सहित निरन्तर वर्त्ते हैं। इनकी प्राप्ति के अर्थ रागी -द्वेषी, मोही, देवन का सेवन करें सो देवमूढ़ता है। जाते राज्य सुख संपदादिक सो सातावेदनीय का उदय तें होय है। सो साता वेदनीय कर्म कूं कोऊ देने को समर्थ है नाहीं तथा लाभ है सो लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम तै होय है। अर भोग सामग्री, उपभोग सामग्री का प्राप्त होना सो भोगोपभोग नामक अन्तराय कर्म के क्षयोपशम ते होय है। अर अपने भावनि कर बांधे कर्मनि कूं कोऊ देवी देवता देने को तथा हरने कूं समर्थ है नाहीं ।
बहुरि कुल की वृद्धि के अर्थ कुल देवी कूं पूजिये है अर पूजते- पूजते हू कुल का विध्वंस देखिये है। अर लक्ष्मी के अर्थि लक्ष्मी देवी कूं तथा रुपया, मोहरनिकूं पूजते हू दरिद्र होते देखिये है तथा शीतला का स्तवन पूजन करते हू सन्तान का मरण होते देखिये है । पितरनिकूं मानते हू रागादिक बधै है तथा व्यन्तर क्षेत्रपालादिकनि कूं अपना सहाइ माने है सो मिथ्यात्व का उदय का प्रभाव है ।
प्रथम तो भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी इन तीन प्रकार के देवनि में मिथ्यादृष्टि 5 ही उपजे है । सम्यदृष्टि का भवनत्रिक देवनि में उत्पाद ही नाहीं । अर स्त्रीपना पावें ही नाहीं । सो पद्मावती, चक्रेश्वरी तो भवनवासी अर स्त्री पर्याय में अर क्षेत्रपालादिक यक्ष वे व्यन्तर, इनमें सम्यक्दृष्टि का उत्पाद कैसे होय ? इनमें तो नियम तै मिथ्यादृष्टि ही उपजै हैं। ऐसा हजारांबार परमागम कहे है।
(पंडित सदासुखदास टीका)
गाथा - ५८.६०
इस प्रकार बहिरात्मा, संसार के प्रपंच के अर्थ कुदेवादि की मान्यता वंद पूजा भक्ति करता हुआ स्वयं दुःखी भयभीत रहता है और नरक निगोद के दुःख भोगता है तथा बहिरात्मा मिथ्यादेव, अदेवों की पूजा भक्ति करता है और नरक निगोद आदि में जाता है।
मिथ्यादेव, अदेव क्या हैं ? और इसकी मान्यता से क्या होता है ? यह कहते हैं
मिथ्या देवं च प्रोक्तं चन्यानं कुन्यान दिस्टते । दुरबुद्धि मुक्ति मार्गस्य, विस्वासं नरयं पतं ॥ ५८ ॥ जस्स देव उपार्थते, क्रियते लोकमूढयं । तत्र देवं च भक्तं च विस्वासं दुर्गति भाजनं ॥ ५९ ॥ अन्वयार्थ - (मिथ्या देवं च प्रोक्तं च) अब मिथ्या देव अर्थात् कल्पित देवों का स्वरूप कहते हैं (न्यानं कुन्यान दिस्टते) जहाँ ज्ञान कुज्ञान कुछ नहीं दिखता (दुरबुद्धि मुक्ति मार्गस्य) दुरबुद्धि जीव उन्हें मोक्षमार्गी कहते हैं, वीतरागी देव कहते हैं (विस्वासं नरयं पतं) इनका विश्वास करने वाले जीव का नरक में पतन होता है।
(जस्स देव उपाद्यंते) जो देव बनाये जाते हैं (क्रियते लोक मूढयं) लोक मूढ़ता से कराये जाते हैं (तत्र देवं च भक्तं च) ऐसे देवों का और उनके भक्तों का (विस्वासं दुर्गति भाजनं) विश्वास करना दुर्गति का पात्र बनाता है।
विशेषार्थ यहां बहिरात्मा जीव की दशा का वर्णन चल रहा है कि वह अपने आपको तो जानता ही नहीं है और यह शरीरादि ही मैं हूँ ऐसा मानता है और फिर संसारी प्रपंच के अर्थ क्या-क्या करता है, क्या मानता है ? बड़ी ही विचित्र दशा है । संसारी प्रयोजन के अर्थ कुदेवों की पूजा भक्ति मान्यता करता है तथा जो कल्पना करके अचेतन जड़ पत्थर आदि के अदेव मिथ्यादेव बनाये जाते हैं, उनकी पूजा भक्ति करता है। अपने को मोक्षमार्गी मानता है। (उन्हें वीतरागी देव कहता है) क्योंकि लोकमूढ़ता वश फंसा है, उनके बनवाने वाले, स्थापना करने वालों ने ऐसा जाल फैलाया हुआ है। संसारी प्रलोभन दिये हैं और जीवों को फंसाये हैं। * इससे क्या होता है ? यह आगे गाथा में कहते हैं
अदेवं देव प्रोक्तं च, अंधं अंधेन दिस्टते ।
मार्गं किं प्रवेसं च, अंध कूपं पतंति ये ॥ ६० ॥
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