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________________ 04 श्री आपकाचार जी गाथा-२६४-२६६ , संभावना रहती है,जोआज्ञा सम्यक्त्व,वेदक सम्यक्त्व या उपशम सम्यक्दृष्टि अपने हैं, ॐकार स्वरूप अपने शुद्धात्मा का अनुभव व ध्यान करते हैं। अचक्षु दर्शन का ७ धव स्वभाव की साधना करते हैं और दूसरी आचार्य पदवी के धारी होते हैं ऐसे ज्ञानी प्रयोग करके निर्विकल्प आत्मा का दर्शन करते हैं, इस तरह जो आत्मा के प्रेमी आत्म . ही मध्यम पात्र होते हैं। . ध्यानी व शुद्धात्मा के अनुभवशील पुरुष होते हैं वे ही मध्यम पात्र कहे गये हैं। यहाँ एक विशेष बात तारण स्वामी ने प्रगट की है कि चतुर्थ गुणस्थानवर्ती * ग्यारह प्रतिमा-दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषधोपवास अव्रत सम्यक्दृष्टि का प्रथम उपाध्याय पदवा का धारातथा पचम गुणस्थानवताव्रता प्रतिमा, सचित्त प्रतिमा, अनुराग भक्ति प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरम्भ त्याग श्रावक को दूसरी आचार्य पदवी का धारी कहा है, तीसरी साधु पदवी का धारी छठे 5 प्रतिमा, परिग्रह त्याग प्रतिमा, अनुमति त्याग प्रतिमा, उद्दिष्टत्याग प्रतिमा। गुणस्थानवर्ती महाव्रती निर्ग्रन्थ वीतरागी साधुको कहा है, चौथी अरिहन्त और पांचवीं .. पांच अणुव्रत-अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, सिद्ध पदवी का वर्णन किया है, जो साधक की साधना क्रम में एक विशेष स्थान । पणि है परिग्रह प्रमाणअणुव्रत, इनका स्वरूप आगे बताया गया है। इस प्रकार व्रती श्रावक रखता है, जिसका विशेष वर्णन पदवी फूलना आदि तथा ज्ञान समुच्चय सार में भी ॥ सम्यक्दृष्टि मध्यम पात्र होता है। जिसे दान देने से संयम का पालन और धर्म की आया है, जो खोज और चिन्तन का विषय है। उनके समय में भट्टारकों का प्रभुत्व * प्रभावना होती है। और बाहुल्य था तथा गृहस्थाचार्य,ग्रंथाचार्य,मढ़ाचार्य, मण्डलाचार्य आदि की प्रथा यह सब पात्र जीव मुक्ति मार्ग के पथिक, आत्मा से परमात्मा बनने वाले हैं। प्रचलन में थी। इसका निर्णय आगे किया जायेगा। इनको दान देने की बड़ी विशेषता है, इसी क्रम में जघन्य पात्र अव्रती सम्यकदृष्टि के जो अपने परमात्मस्वरूप का अनुभव करते हैं जैसा तीर्थंकरों ने आत्म स्वरूप स्वरूप का वर्णन करते हैं - कहा है, अचक्षुदर्शन में अपने उस स्वरूप को देखते हैं। ग्यारह प्रतिमा और पांच अव्रतं त्रितिय पात्रं च,देव सास्त्र गुरु मानते। अणुव्रतों का पालन करते हैं, अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना और धर्म ध्यान की आराधना में रत रहते हैं, वे मध्यम पात्र व्रती श्रावक सम्यक्दृष्टि कहे जाते हैं। सद्दहति सुद्ध संमिक्तं, साधं न्यान मयं धुवं ॥ २६४॥ मध्यम पात्र व्रती सम्यक्दृष्टि श्रावक के भी तीन भेद होते हैं- उत्तम, मध्यम, सुख दिस्टि च संपून, मल मुक्तं सुद्धभावना। जघन्य। १. दसवीं, ग्यारहवीं प्रतिमाधारी-मध्यम में उत्तम पात्र हैं। मति कमलासने कंठे, कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं ॥२५॥ २.सातवीं से नवमीं प्रतिमाधारी-मध्यम में मध्यम पात्र हैं। मिथ्या त्रिविधि न दिस्टंते, सल्यं त्रयं निरोधनं । ३.पहली से छटवीं प्रतिमाधारी-मध्यम में जघन्य पात्र हैं। दसवीं अनुमति त्याग प्रतिमा है, ग्यारहवीं उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है। यह भी सुधं च सुख दर्वार्थ, अविरत संमिक दिस्टितं ॥ २६६ ॥ अपने उद्देश्य से बनाया हुआ आहार नहीं लेते हैं। ग्यारहवीं प्रतिमा के दो भेद प्रसिद्ध अन्वयार्थ-(अव्रतं त्रितिय पात्रंच) तीसरेजघन्य पात्र अव्रत सम्यकदृष्टि हैं जो (देव हैं-१.क्षुल्लक २. ऐलक, क्षुल्लक एक खंड वस्त्र लंगोटधारी होते हैं। मोर पिच्छिका सास्त्र गुरु मानते)सच्चे देव गुरुशास्त्र को मानते हैं (सद्दहति सुद्ध समिक्तं) शुद्धात्म व कमण्डल रखते हैं, बैठकर पात्र में भोजन करते हैं, कोई एक ही घर से भिक्षा या स्वरूप का सच्चा श्रद्धान करते हैं (सार्धन्यान मयं धुवं) अपने ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव भोजन करते हैं। कोई अपने भिक्षा के पात्र में कई घर से थोड़ा-थोड़ा लेकर अंतिम 5 की साधना करते हैं। घर में बैठकर भोजन करते हैं। ऐलक में विशेषता यह है कि वे मात्र एक लंगोट रखते (सुद्ध दिस्टि च संपून) यह अविरत सम्यक्दृष्टि पूर्ण शुद्ध आत्मा का अनुभूति हैं, हाथों से केशलौंच करते हैं व बैठकर एक ही घर में भिक्षा से अपने हाथों में दिया युत श्रद्धानी होता है और (मल मुक्तं सुद्ध भावना) पच्चीस मलों से मुक्त शद्ध हुआ भोजन करते हैं। भावना करता है (मति कमलासने कंठे) सुबुद्धि रूपी सरस्वती का जागरण होने से 2 व्रती श्रावक सुमति सुश्रुतज्ञान के धारी होते हैं व शास्त्रों के विशेष मर्मज्ञ होते (कुन्यानं त्रिविधि मुक्तयं) तीनों प्रकार के कुज्ञान से मुक्त होता है। Joirmestonekrrirmes १६४
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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