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04 श्री आपकाचार जी
गाथा-११३-११७ P OON शराबी है। मोहमहामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि' मैं सबका मालिक जो सम्यक्ज्ञान रहित मलिन चित्त है अर्थात् अपनी बड़ाई प्रतिष्ठा लाभ आदि जिम्मेदार हूँ, सब मेरे अधिकार में है। ऐसे अहं के नशे में उन्मत्त रहता है तथा जिसके दुष्ट भावों से जिसका चित्त परिणत हुआ है और मन में ऐसा जानता है कि हमारी बोलने का कोई ठिकाना नहीं है, भाषा शुद्धि ही नहीं जानता, चाहे जो बकता है, उसे दुष्टता को कोई नहीं जान सकता, ऐसा समझकर वीतराग परमानंद सुख रस के वास्तव में शराबी कहते हैं। जो मिथ्या असत्य भावों में लगा रहता है, जिसे * अनुभव रूप चित्त की शुद्धि को नहीं करता तथा बाहर से बगुला जैसा भेषमायाचार ७ कार्य-अकार्य का विवेक नहीं है, क्या उचित है? क्या अनुचित है? जिसे अपनीरूप लोकरंजन के लिये धारण किया है, इसी भेष से हमारा कल्याण होगा इत्यादि, सुध नहीं है, बेभूल है, वह मनुष्य शराबी है। ऐसा शराबी अज्ञानी प्राणी हमेशा संसार अनेक विकल्पों की कल्लोलों से अपवित्र है। ऐसे किसी अज्ञानी के मोक्ष पदवी हे में भ्रमण करता है। जिनेन्द्र परमात्मा ने क्या कहा है ? जिनवाणी में क्या कहा है? जीव! मत देख,अर्थात् बिना सम्यकदर्शन के मोक्ष नहीं होता। उसका दृष्टांत कहते इसका कोई श्रद्धान नहीं करता। अपने आत्म स्वरूप की तरफ नहीं देखता और हैं-बहुत पानी के मथने से भी हाथ चिकना नहीं होता क्योंकि जल में चिकनापन है मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि भावों में लीन रहता है । नाशवान, क्षणभंगुर शरीरादि, ही नहीं, जैसे जल में चिकनाई नहीं है, वैसे ही बाहरी भेष में सम्यक्ज्ञान नहीं है। पौद्गलिक पदार्थों को अविनाशी, शाश्वत जानता है, कहता है। मोह ममत्व और सम्यक्ज्ञान के बिना महान तप करो तो भी मोक्ष नहीं होता क्योंकि सम्यक्ज्ञान का मान का भूत उसके सिर पर चढ़ा रहता है। अपने शुद्ध तत्व शुद्धात्म स्वरूप का लक्षण वीतराग निज शुद्धात्मा की अनुभूति है वही मोक्ष का मूल है। अनुभव विचार चिन्तन नहीं करता और अशुद्ध को ही शुद्ध कहता है। जो कुछ हूँयही आगे ज्ञानी जीवों के निज शुद्धात्मभाव के बिना अन्य कुछ भी आदरने योग्य मैं हूँ अर्थात् यह शरीरादि रूपधारी ही मैं हूँ। इनसे भिन्न अपने शुद्धात्म स्वभाव को नहीं है ,आचार्य योगीन्दुदेव यह कहते हैंजानता ही नहीं है। पर में अपनत्व, एकत्व मानकर शरीर, धन, स्त्री, पुत्र, परिवार
अप्पा मिल्लिविणाणियह,अण्णुण सुंदरु वत्थु । के मोह में बेसुध रहता है। ज्ञानीजनों ने इसे ही मद्य दोष कहा है।
तेण ण विसयह मणु रमाइ,जाणतह परमत्थु॥७७॥ जिनेन्द्र परमात्मा ने जो शुद्ध तत्वार्थ निज शुद्धात्म स्वरूप को ही इष्ट उपादेय
आत्मा को छोड़कर ज्ञानियों को अन्य वस्तु अच्छी नहीं लगती इसलिये कहा है उसकी श्रद्धा साधना नहीं करता; फिर वह बाहर में व्रतधारी हो, महाव्रती परमात्म पदार्थ को जानने वालों का मन विषयों में नहीं लगता। साधु हो या अव्रती श्रावक हो, वह अज्ञानी है। जो मोह ममत्व में रत है, उसे हमेशा मिथ्यात्व रागादिक को छोड़ने से निज शुद्धात्म द्रव्य का यथार्थ ज्ञानकर शराब का ही नशा चढ़ा रहता है, वह शराबी संसार में ही भ्रमण करेगा। 2 जिनका चित्त परिणत हो गया है, ऐसे ज्ञानियों को शुद्ध बुद्ध परम स्वभाव परमात्मा
जिनेन्द्र परमात्मा ने क्या कहा है? इस बात को योगीन्दुदेव परमात्मप्रकाश में को छोड़कर दूसरी कोई भी वस्तु सुन्दर नहीं भासती इसीलिये उनका मन कभी कहते हैं
है विषय वासना में नहीं रमता। यह विषय कैसे हैं? जो कि शुद्धात्मा की प्राप्ति के शत्रु देउ णिरंजणु इउँ भणइ,णाणिं मुक्खु ण भति।
ॐ हैं, ऐसे भव भ्रमण के कारणभूत काम भोग रूप पांच इन्द्रियों के विषय उनमें मूढ णाण विहीणा जीवडा, चिरु संसारु भमंति॥७३॥ जीवों का ही मन रमता है, सम्यक्दृष्टि का मन नहीं रमता। णाण विहीणहँ मोक्खपउ,जीव मकासु विजोइ।
कैसे हैं सम्यकद्रष्टि? जिन्होंने वीतराग सहजानंद अखंड सुख मेंतन्मय परमात्म बहुएँ सलिल विरोलियई,करु चोप्पडउण होइ॥७४॥ 5 तत्व को जान लिया है इसलिये यह निश्चय हुआ कि जो विषय वासना के अनुरागी हैं , अनन्त ज्ञानादि गुण सहित और अठारह दोष रहित जो सर्वज्ञ वीतराग देव हैं वे अज्ञानी हैंवे ऐसा कहते हैं कि वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन सम्यकज्ञान से ही मोक्ष होता है, मोह के ममत्व भाव के कारण इस जीव की क्या दशा हो रही है? वह कहते हैंइसमें संदेह नहीं है और स्वसंवेदन ज्ञान कर रहित जो जीव हैं वे बहुत काल तक
कालु अणाइ अणाइ जिउ भव सायरुवि अणंतु । संसार में भटकते हैं।
जीवि विण्णिण पत्ताई जिणु सामिउ सम्मत्तु ।।१४३॥