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2010
Sotatodiherovetoads
040 श्री श्रावकाचार जी
गाथा-११३-११७ POOO अनृतं असत्य भावं च,कार्याकार्य न सूझये।
(जिन उक्तं सुद्धतत्वार्थ) जिनेन्द्र परमात्मा ने जो शुद्ध तत्वार्थ अर्थात् शुद्धात्म ते नरा मद्यपा होति, संसारे भ्रमनं सदा॥११४॥
स्वरूप को ही इष्ट और उपादेय कहा है (जेन साधं अव्रतं व्रती) उसका, जो व्रती हो ।
या अव्रती हो, श्रद्धान और आराधन नहीं करता है (अन्यानी मिथ्या ममत्तस्य) वह जिन उक्तं न सार्धन्ते,मिथ्या रागादि भावना।
* अज्ञानी मिथ्या मोह ममत्व में (मद्ये आरूढ़ ते सदा) हमेशा शराब के नशे में उनमत्त ७ अनृतं नृत जानति, ममतं मान भूतयं ॥११५॥ रहता है। सुख तत्वं न वेदंते,असुखं सुख गीयते ।
विशेषार्थ- यहाँ व्यसनों के प्रकरण में मद्यदोष शराब पीने का वर्णन चल रहा मद्यं ममत्त भावस्य, मद्य दोषं जथा बुधैः॥११६॥ है, संसारी व्यवहार में गुड़, महुआ, मुनक्का, अंगूर आदि को सड़ा-गलाकर जो जिन उक्तं सुख तत्वार्थ, जेन सार्थ अव्रतं व्रती।
! मादक पदार्थ तैयार किया जाता है उसको शराब कहते हैं। इसके पीने से मनुष्य
बेसुध, मदहोश, बाबला रहता है, उसे अपनी या किसी की कोई खबर नहीं रहती। अन्यानी मिथ्या ममत्तस्य, मधे आरूढ़ ते सदा॥११७॥
संसार में अज्ञानी जीव गम या थकावट मिटाने के लिये नशा करते हैं। भांग, गांजा, अन्वयार्थ- (मद्यं ममत्व भावेन) ममत्व भाव ही मद्यपान, शराब पीना है अफीम,तम्बाकू, बीड़ी, चाय आदि भी इसी व्यसन के अंतर्गत आते हैं। शराब आदि (राज्यं आरूढ चिंतन) मैं सबका मालिक जिम्मेदार हैं. सब मेरे अधिकार में है. ऐसा नशीले पदार्थों का सेवन करने से मनुष्य की क्या दशा होती है, इसका वर्णन वसुनन्दि चिंतन, इन्हीं विचारों में संलग्न रहना (भाषा सुद्धि न जानते) जिसके बोलने का श्रावकाचार में गाथा ७० से ७९ तक किया है वह लिखते हैंकोई ठिकाना नहीं रहता, चाहे जो कहता है (मद्यं तस्य विसंचितं) उसी को शराबी मद्यपान से मनुष्य उन्मत्त होकर अनेक निंदनीय कार्यों को करता है और कहा जाता है।
S इसीलिये इस लोक और परलोक में अनन्त दुःखों को भोगता मद्यपायी उन्मत्त (अनृतं असत्य भावं च) जो मिथ्या और असत्य भावों में लगा रहता है ॐ मनुष्य लोक मर्यादा का उल्लंघन कर बेसुध होकर चौराहे में गिर पड़ता है और इस (कार्याकार्य न सूझये) जिसे कोई कार्य-अकार्य नहीं सूझता, क्या अच्छा है, क्या प्रकार पड़े हुए उसके लार बहते हुए मुख को कुत्ते जीभ से चाटते हैं। उस बेसुध पड़े बुरा है, क्या उचित है, क्या अनुचित है ? जिसको इसकी सुध नहीं रहती, बेभूल है हुए मद्यपायी के पास जो कुछ द्रव्य होता है उसे दूसरे लोग हर ले जाते हैं, पुनः कुछ (ते नरा मद्यपा होति) वह मनुष्य शराब पिये हुए है, शराबी है (संसारे भ्रमनं सदा) होश में आकर गिरता पड़ता बकता जाता है कि जिस बदमाश ने मेरा द्रव्य चुराया ऐसा शराबी अज्ञानी प्राणी सदा संसार में ही भ्रमण करता है।
है, मैं तलवार से उसका सिर काटूंगा इस प्रकार कुपित वह गरजता हुआ अपने घर (जिन उक्तं न सार्धन्ते) जिनेन्द्र भगवान ने क्या कहा है, इसका वह श्रद्धान 5 जाकर लकड़ी लेकर बर्तनों को फोड़ने लगता है। वह अपने ही पुत्र को, बहिन को नहीं करता है, अपने आत्म स्वरूप की तरफ नहीं देखता (मिथ्या रागादि भावना) और अन्य भी सबको लात मारने लगता है और नहीं बोलने योग्य वचनों को बकता मिथ्यात्व राग-द्वेषादि के भावों में लगा रहता है (अनृतं नृतंजानंति) क्या शाश्वत है, है। मद्यपान से प्रबल उन्मत्त हुआ वह भले-बुरे को नहीं जानता तथा और भी अनेक क्या अशाश्वत है ? नाशवान क्षणभंगुर को अविनाशी शाश्वत जानता है (ममतं निर्लज्ज कार्यों को करके बहुत पाप का बंध करता है। इस पाप से वह जन्म, जरा, मान भूतयं) ममत्व का और मान का भूत उसके सिर पर चढ़ा रहता है।
मरण रूप संसार में अनन्त दु:ख को पाता है। इस तरह मद्यपान में अनेक प्रकार के (सुद्ध तत्वं न वेदंते) शुद्धतत्व अपने शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव अनुभूति दोषों को जान करके मन, वचन, काय तथा कृत, कारित, अनुमोदना से उसका नहीं करता (असुद्धं सुद्ध गीयते) अशुद्ध को ही शुद्ध कहता है, जो कुछ हूँ यही मैं हूँ त्याग करना चाहिये।
अर्थात् यह शरीरादि रूपधारी ही में हूँ (मद्यं ममत्त भावस्य) ममत्व भाव की शराब यह तो संसार में मद्यपान का परिणाम है। यहाँ श्री तारण स्वामी कहते हैं कि 9 पिये रहता है (मद्य दोषं जथा बुधैः)ज्ञानी जनों ने इसे ही मद्य का दोष कहा है। जिसने व्यवहार में मद्य त्याग कर दिया है परन्तु जो मोह ममत्व भाव में रत है वह