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Our श्री बाचकाचार जी
गाथा-११३ R OO मांसाहार के त्यागी होते हुए भी उन्होंने मांस खाना छोड़ा नहीं है।
देखकर नहीं खाते वह भी मांसाहारी हैं तथा हिंसा में आनंद मानना भी मांस का दूषण (फलं संपूर्न भुक्तंच) जो साबुत फल को बिना देखे शोधे खाता है (संमूर्छन है इसलिये जो जीव अपना आत्म कल्याण करना चाहते हैं, संसार के दु:ख नरक त्रस विभ्रमं) उसमें संमूर्छन त्रस जीवों के होने का संशय रहता है (जीवस्य उत्पन्नं निगोद आदि दुर्गतियों से बचना चाहते हैं उन्हें इन विकथाओं का, व्यसनों का, उनके 0 दिस्टा) क्योंकि फलों में संमूर्च्छन और त्रस जीवों को पैदा होते देखा जाता है * अतिचार सहित सर्वथा त्याग कर देना चाहिये तथा हमेशा अपने भावों की संभाल ७
(हिंसानंदी मांस दूषन) उनका सेवन करना तथा हिंसा में आनंद मानना यह सब रखना चाहिये; क्योंकि परिणाम ही कर्म हैं। भावों से ही कर्म बंधते हैं और इसी से यह मांस खाने के दोष कहे गये हैं।
जीव संसार में रुलता है। विशेषार्थ- सप्त व्यसन में दूसरा व्यसन मांस खाना है। किसी भी प्राणी के मांस के दोषों को बचाने के लिये यह बात बहुत जरूरी है कि जिस किसी शरीर का घात करके अथवा मरे हुए शरीर का मांस खाना यह महानिंद्य कर्म महान । वस्तु में सम्मूर्च्छन त्रस जन्तु पैदा हों उसको नहीं खाना चाहिये। हर एक भोजन जो हिंसा का कारण नरक ले जाने वाला है। मांस खाने वाला रौद्र ध्यानी, कठोर, दुष्ट बना हुआ ताजा होगा वह अपने स्वाद में रहेगा । बासी होने पर रस चलित हो चित्त वाला होता है। मांस में अनन्त संमूर्च्छन और त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है, जायेगा, जो फल सड़ जावे, गल जावे वह रस चलित होगा, जो घी या तेल अपने उसके खाने से अनन्त जीवों का घात होता है और महान हिंसा का दोष लगता है। असली स्वाद में न होगा वह रस चलित होगा, ऐसे पदार्थों को खाना श्रावक को यहाँ तारण स्वामी कहते हैं कि जो बाहर से मांसाहार के त्यागी हैं परन्तु जिनके रौद्रर उचित नहीं है। ध्यानों का सद्भाव चल रहा है वह मांसाहारी ही हैं. उन्हें वही मांस खाने के दोष से किसी भी फल को तोड़कर देखकर खाना उचित है क्योंकि उसके भीतर त्रस अनन्त अशुभ कर्मों का बन्ध होता है तथा जो मांसाहार के त्यागी हैं परन्तु जल, जीव पैदा होने की संभावना है। बादाम, सुपारी, जामफल, आम आदि के भीतर कंदमूल, शाक भाजी, जिनमें संमूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति होती रहती है तथा जिस कभी-कभी कीड़ा निकल आते हैं। अच्छी तरह से देखे बिना कोई फल या वस्तु वस्तु का स्वाद बिगड़ जावे, उसमें भी संमूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति होती है, जो नहीं खाना चाहिये, जो बिना देखे खाते-पीते हैं वह हिंसा की परवाह नहीं करते वे मनुष्य इनको खाते हैं वह मांसाहारी ही हैं। वे नरक तिर्यंच गति ही जाते हैं। यहाँ हिंसा में आनंद मानते हैं, उनको मांस का दोष आता है। प्रयोजन यह है कि जिस मांस खाने का त्याग कर देने मात्र से मांसाहार का त्यागी नहीं हुआ; क्योंकि जिन चीज में संमूर्छन, त्रस जीवों की उत्पत्ति हो गई है व होने की संभावना हो उस वस्तु चीजों में संमूर्छन और त्रस जीवों की उत्पत्ति होती है, उनका सेवन करना खाना को दयावान मांसाहार त्यागी को नहीं खाना चाहिये। शुद्ध रसोई खान-पान करने भीमांस खाना है। जैसे-पानी, इसमें संमूर्छन और त्रस जीव रहते ही हैं तो इसकोसे ही श्रावक यथार्थ में मांस के सर्व दोषों से बच सकता है। बिना छाने, शुद्ध प्रासुक किये बिना पीना मांस दूषण है। ऐसे ही कंदमूल- आलू, विकथा वचन की क्रिया होती है, जिससे भाव बिगड़ते हैं। व्यसन शारीरिक मूली, अदरख, घुइयाँ, प्याज आदि जिनमें निरंतर ही संमूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति क्रिया होती है इससे भी भाव बिगड़ते हैं। मन, वचन, काय की क्रिया से आस्रव होती रहती है इन्हें खाना भी मांसाहार है; तथा शाक भाजी, फूल गोभी आदि होता है और जीव के भाव से बन्ध होता है अत: जो आस्रव बन्ध से बचना चाहते हैं जिनमें संमूर्छन जीवों की उत्पत्ति होती है तथा त्रस जीव भी रहते हैं इनका सेवन उन्हें द्रव्य संयम अर्थात् मन, वचन, काय की क्रिया को संयम मय करना होगा तभी करना खाना भी मांसाहार है तथा दो दाल वाली वस्तु दूध-दही आदि में मिलाकर भाव संयम होगा और आस्रव बन्ध रुकेगा। खाना, अचार मुरब्बा आदि जिनमें संमूर्छन जीव पैदा होते हैं. रहते हैं. त्रस जीव
आगे मद्य पान के दोषों का वर्णन करते हैंभी पैदा हो जाते हैं, इनको खाना तथा ऐसी चीजों को मन से खाने के भाव करना भी मचं ममत्व भावेन, राज्यं आरूढ़ चिंतनं । मांसाहार का दूषण है तथा साबुत फलों को खाना क्योंकि फलों में तो संमूर्च्छन ही
भाषा सुद्धिन जानते,मचं तस्य विसंचितं ॥११३॥ नहीं, त्रस जीवों को पैदा होते देखा जाता है तो जो फलों को भी बनाकर शोधकर