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श्री आवकाचार जी
भी है ऐसे दो प्रकार का है।
0 आर्त- रौद्र दोनों ही ध्यान अशुभ हैं तथा पाप से भरे हैं और दुःख ही की संतति इनसे चलती है इसलिये इनको छोड़कर धर्मध्यान करने का श्री गुरू का उपदेश है।
ध्यान का स्वरूप एक ज्ञेय में एकाग्र होना है। जो पुरुष धर्म में एकाग्र चित्त करता है, उस काल इन्द्रिय विषयों को नहीं वेदता है उसके धर्मध्यान होता है। इसका मूल कारण संसार, देह, भोग से वैराग्य है, बिना वैराग्य के धर्म में चित्त रुकता नहीं है।
[D] ऐसा सत्य वचन भी नहीं कहे, जिससे अपना और दूसरों का बिगाड़ जो जाये, आपत्ति आ जाये, अनर्थ पैदा हो जाये, दुःख पैदा हो जाये, मर्म छिद जाये, राजा से दण्ड हो जाये, धन की हानि हो जाये, ऐसा सत्य वचन भी झूठ ही है । समस्त पापों का मूल कारण परिग्रह है, समस्त खोटे ध्यान परिग्रह से ही होते हैं; इसीलिये भगवान ने मूर्च्छा को परिग्रह कहा है।
[] अहिंसा धर्म, मोक्ष का कारण तथा संसार के समस्त परिभ्रमण के दुःख रूप रोग को मिटाने के लिये अमृत के समान है । इसे प्राप्त करके, अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के अयोग्य आचरण व्यवहार देखकर अपने परिणामों में आकुल नहीं होना चाहिये।
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रत्नत्रय सिद्धान्त सूत्र
है, जैसे- कांजी डालने से दूध फट जाता है। मायाचारी अपना कपट बहुत छिपाता है किन्तु वह प्रगट हुए बिना नहीं रहता है। दूसरे जीवों की चुगली करना व दोष बतलाना, वे स्वयं ही प्रगट हो जाते हैं। मायाचार करना तो अपनी प्रतीति बिगाड़ना है, धर्म का बिगाड़ना है । मायाचारी से समस्त हितैषी बिना किये ही बैरी हो जाते हैं।
सत्य के प्रभाव से देव भी सेवा करते हैं। सत्य सहित ही अणुव्रत, महाव्रत होते हैं। सत्य के बिना समस्त व्रत संयम नष्ट हो जाते हैं। सत्य से सभी आपत्तियों का नाश होता है अतः जो भी वचन बोलो वह अपने और पर के हित रूप कहो, प्रामाणिक कहो, किसी को दुःख उत्पन्न करने वाला वचन नहीं कहो ।
जो पांच पापों में प्रवर्तने वाले हैं वे सदाकाल मलिन हैं। जो पर के उपकार का लोप करते हैं वे कृतघ्नी सदा ही मलिन हैं। जो गुरुद्रोही, धर्मद्रोही, स्वामीद्रोही, मित्रद्रोही उपकार को लोपने वाले हैं उनके पाप का संतान क्रम असंख्यात भवों तक करोड़ों तीर्थों में स्नान करने से, दान करने से भी दूर नहीं होता है। विश्वासघाती सदा ही मलिन है।
] पांच समितियों का पालन करना, क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों का निग्रह करना, मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्ति रूप तीन दण्डों का त्याग करना तथा विषयों में दौड़ने वाली पांच इन्द्रियों को वश में करना संयम है।
] क्रोध दोनों लोकों का नाश करने वाला है, महापाप बन्ध कराकर नरक पहुंचाता है, बुद्धि भ्रष्ट करता है, निर्दयी बनाता है, दूसरों के द्वारा किये गये उपकार को भुलाकर कृतघ्नी बना देता है अतः क्रोध के समान अन्य पाप नहीं है। इस लोक में क्रोधादि कषायों के समान अपना घात करने वाला दूसरा नहीं है ।
] इच्छा का निरोध करना तप है। तप, चार आराधनाओं में प्रधान है। जैसे- स्वर्ण को तपाने से सोलह बार पूर्ण ऊष्णता (ताप) देने पर वह समस्त मैल छोड़कर शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी बारह प्रकार के तपों के प्रभाव से कर्ममल रहित होकर शुद्ध हो जाता है ।
कोमल परिणामों द्वारा दोनों लोकों की सिद्धि होती है- कोमल परिणामी का इस लोक में सुयश होता है, परलोक में देवगति में देवगति की 5 प्राप्ति होती है। कोमल परिणामों से ही अंतरंग-बहिरंग तप शोभित होते हैं। अभिमानी का तप भी निन्दा योग्य है। कोमल परिणामी से तीनों लोकों के जीवों का मन प्रसन्न रहता है।
जगत में निर्मल कीर्ति दान से ही फैलती है। दान देने से बैरी भी बैर छोड़ देते हैं, चरणों में झुक जाते हैं, अपना अहित करने वाला भी मित्र हो जाता है। जगत में दान बड़ा है, सच्ची भक्ति से थोड़ा सा भी दान देने वाला जीव भोग भूमि के भोगों को तीन पल्य पर्यन्त भोग कर देव लोक में चला जाता है।
जिस समय मायाचार जान लिया जाता है, उसी समय प्रीति भंग हो जाती
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