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श्री आवकाचार जी
समाज को अध्यात्ममय जन जागरण की एक नई दिशा प्रदान कर रहे हैं। "तारण की जीवन ज्योति" पूज्य श्री के द्वारा लिखी गई अनमोल कृति है । इसकी रचना का इतिहास भी बहुत ही चित्ताकर्षक है। जिन-जिन ग्रन्थों के आधार पर यह सृजित हुई है, उन ग्रन्थों का समावेश इसकी रचना के इतिवृत्त में ही समाहित हो जाता है ।
तारण की जीवन ज्योति की रचना के पूर्व पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज ने अष्टान्हिका पर्वों के अवसर पर, दीपावली के अवसर पर, पर्यूषण पर्वों के समय में अनेकों बार श्री तारण तरण अध्यात्म वाणी जी चौदह ग्रन्थों का आद्योपांत स्वाध्याय मनन किया और साथ ही साथ ठिकानेसार, निर्वाण हुँडी, न्यानपिंड की पाल्हड़ी आदि ग्रन्थों का गहराई से चिन्तन किया। चौदह ग्रन्थों की कुछ प्राचीनतम हस्तलिखित पांडुलिपियों का भी बारीकी से अवलोकन किया, अन्त में श्री ममलपाहुड़, छद्मस्थवाणी जी और नाममाला आदि ग्रन्थों का सूक्ष्मता से अध्ययन कर साधना में संलग्न रहते हुए उपरोक्त ग्रन्थों के आधार पर ईस्वी सन् १९७७-७८ में तारण की जीवन ज्योति लिखने की पृष्ठ भूमि तैयार की ; पश्चात् सन् १९७९ में बरेली में पूज्य श्री प्रतिज्ञा पूर्वक दो माह की मौन साधना रत रहे । इस मौन साधना के समय में ही जीवन ज्योति का लेखन कार्य प्रारंभ हुआ और उसके बाद जब-जब भी एक-एक, दो-दो, माह की मौन साधना की, "तारण की जीवन ज्योति” अनवरत रूप से लिखाती रही।
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विशालता की दृष्टि से यह चार भागों में विभाजित है। संत तारण स्वामी की जीवनी सरलता से सबकी समझ में आ सके इस बात का ध्यान रखते हुए पूज्य श्री ने तारण की जीवन ज्योति को एकांकी के रूप में लिखा है। इसके चार भागों में परिच्छेदों की संख्यायें भिन्न-भिन्न हैं। पहले भाग में ३२ परिच्छेद हैं, इसमें माँ वीरश्री और तारण स्वामी की आपस में चर्चा हृदय को वैराग्य भावनाओं 5 मय कर देने वाली है। तारण स्वामी ने २१ वर्ष की किशोरावस्था में बाल ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने का संकल्प किया इसके पश्चात् उनके वैराग्य भाव एवं धर्म मार्ग पर आगे बढ़ने की भावनाओं के कारण सब जीवों में प्रभावना होने लगी और मंदिर में दो बहिनों की वार्ता तथा दो मित्रों की चर्चा भी इस प्रथम
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जीवन ज्योति परिच्छेद में दी गई है। इसके आगे के परिच्छेदों और भागों में सद्गुरू के जीवन परिचय को स्पष्ट करने वाला विषय क्रमशः वृद्धिगत होता गया है।
प्रथम परिच्छेद में हुई चर्चा वार्ताओं के पश्चात् अन्य प्रकरणों में चंदेरी गादी पर स्थित तत्कालीन भट्टारक, गुप्तचर से समय-समय पर तारण स्वामी से संबंधित सब जानकारी करते रहते थे, वह इतिहास इसमें आया है। तारण स्वामी के अन्य साथियों की तत्व चर्चायें, भजन फूलनामय अध्यात्म भक्ति के कार्यक्रम, विरउ ब्रह्मचारी की पंडितवर्ग, श्रेष्ठिवर्ग व अन्य बंधुओं से हुई चर्चायें, रुइया रमण, कमलावती, विरउ, वैद्य, डालु, पाताले, मनसुख आदि प्रमुख शिष्यों व पंडित वर्ग के लोगों की समय-समय पर हुई बैठक और उनमें लिये गये सामाजिक धार्मिक अनुशासनपूर्ण निर्णय, इन सब चर्चा वार्ताओं के साथ ही सद्गुरू तारण स्वामी की अध्यात्म साधना और शुद्ध अध्यात्म के शंखनाद से हुई आध्यात्मिक क्रांति, तारण स्वामी का उपदेश, सद्गुरू द्वारा प्रारम्भ हुई वीतराग धर्म की प्रभावना, समाज में आध्यात्मिक क्रांति एवं जागरण, भट्टारकों और उनके ही पांडे पंडितों को यह सत्य धर्म की प्रभावना सहन न होना, फल स्वरूप अनेक प्रकार के प्रलोभनों में तारण स्वामी को फंसाने का उपक्रम....षड़यंत्र.... लेकिन सब निरर्थक ही रहे। संत तारण स्वामी को अपने छल प्रपंच के जाल में फंसा पाने में असमर्थ भट्टारकों द्वारा की गई गुप्त मंत्रणायें, जहर देने का षड़यंत्र, धन का लोभ देकर एवं सामाजिक दबाव से भयभीत कर मामा श्री लक्ष्मण सिघई के द्वारा जहर दिलवाना, लोगों में क्रांति और तारण स्वामी का अपूर्व समता भाव, माँ वीरश्री का समाधिमरण, तारण स्वामी की सप्तम प्रतिमा की दीक्षा होना, विशेष साधना प्रभावना होना, पुनः असंतुष्ट पाण्डे पंडितों द्वारा षड़यंत्र पूर्वक तारण स्वामी को नदी में डुबाने की योजना और तीन बार डुबाने पर तीन टापू बनना आदि सभी घटनायें अत्यंत मर्मस्पर्शी हैं । इतना सब होने के बाद भी तारण स्वामी का उत्तम क्षमा भाव महान आदर्श के रूप में प्रगट होता है। इन सभी घटनाओं को जीवन ज्योति में पढ़ने से हृदय रोमांचित हो उठता है।
तारण पंथ का निर्माण किन कारणों से हुआ, कब और कैसे हुआ,
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