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सका मद
पवार
04 श्री आपकाचार जी में जन्म लेता है। संसार की इस विडम्बना को जानकर कौन विद्वान जाति का मद भी गर्व करने की वस्तु नहीं है। मौत सामने आने पर सभी बल व्यर्थ हो जाते हैं। कर सकता है ? यहाँ किसी की कोई जाति हमेशा नहीं रहती अत: जाति का मद
उदयोपशमनिमित्तौ लाभालाभावनित्य को मत्वा। करना ठीक नहीं है।
नालाभे वैक्रव्यं न च लाभे विस्मय: कार्य:॥ ८९॥ रूपबल श्रुति मतिशील विभव परिवर्जितास्तथा दरवा।
लाभान्तराय कर्म के क्षयोपशम से लाभ होता है और लाभान्तराय कर्म के विपुल कुलोत्पन्नानपिननुकुलमान: परित्याज्य: ।। ८३॥ उदय से कुछ भी लाभ नहीं होता अत: लाभ भी नित्य नहीं है और अलाभ भी नित्य, बड़े भारी कुल में जन्म लेने पर भी स्त्री अथवा पुरुष यदि कुरूप हुआ, निर्बल नहीं है। दाता की शक्ति और प्रसन्नता के अनुरूप प्राप्त हुए कुछ उपभोग के योग्य हुआ, अत्यन्त मूर्ख हुआ, हित और अहित का विचार करने की बुद्धि न हुई, जुआँरी, बड़े भारी लाभ से भी मुनीश्वरों को मद नहीं होता है। पर स्त्री गामी, असत्यवादी और चोर हुआ, पास में धन-धान्य सम्पदा न हुई तो ।
ग्रहणोद्राहणनवकृति विचारणार्थावधारणाद्येषु । सभी उसका तिरस्कार करते हैं अत: कुल का मद करना व्यर्थ है।
बुद्धयङ्ग विधिविकल्पेष्वनन्त पर्याय वृद्धेषु ॥ ९१॥ कः शुक्रशोणित समुद्भवस्य सततं चयापचयिकस्य।
पूर्वपुरुषसिंहानां विज्ञानातिशयसागरानन्त्यम् । रोग जरापाश्रयिणो मदावकाशोऽस्ति रूपस्य ।। ८५॥
श्रुत्वा साम्प्रतपुरुषाः कथं स्वबुद्धया मदं यान्ति ॥ ९२॥ नित्य परिशीलनीये त्वग्मासाच्छादिते कलुष पूर्णे।
अपूर्व सूत्रों और उनके अर्थ को ग्रहण करने में,दूसरों को समझाने में, नवीन निश्चय विनाश धर्मिणि रूपे मद कारणं किं स्यात् ॥८६॥ प्रकरण वगैरह रचने में, सूक्ष्म पदार्थों का विचार करने में, आचार्य वगैरह के मुख से पिता के वीर्य और माता के रज से शरीर बनता है,उत्पन्न होता है। सदैव १ निकले हुए अर्थ को एक बार में अवधारण करने वगैरह में हमारे पूर्वज बड़े दक्ष थे घटता बढ़ता रहता है, रोग और जरा का घर है, इसमें मद करने का क्या है? शरीर तथा शास्त्रों में बुद्धि के सुनने की इच्छा वगैरह जो अंग बताये हैं, उनके भेद मति में नौ मलद्वार हैं,उनसे सदा अपवित्र गंदे पदार्थ बहा करते हैं। रूपवान रागी मनुष्य ज्ञान आदि हैं,जो परस्पर में अनन्त पर्यायों की वृद्धि को लिये हुए हैं; क्योंकि मति हर समय उसकी सफाई का ध्यान रखता है। चर्म और रक्त मांस से यह ढका है और श्रुतज्ञान सब द्रव्यों को विषय करते हैं। अवधिज्ञान समस्त रूपी द्रव्य को किन्तु उसके अंदर मूत्र, विष्ठा,खून,चर्बी,मज्जा,हड्डी, नसें आदि गन्दी चीजें भरी जानता है और मन: पर्ययज्ञान उसके अनन्तवें भाग रूपी द्रव्य को जानता है। इस
2 प्रकार परस्पर में अनन्त पर्यायों की वृद्धि को लिये हए जो बद्धि के भेद हैं वे भी हमारे तेल, उबटन, स्नान, लेप और अच्छे-अच्छे खान-पान से इसकाउन चौदह पूर्व के पाठी से लेकर ग्यारह अंग के ज्ञाता पूर्व में जो पाये जाते थे। इस लालन-पालन करने पर भी यह प्राय: नष्ट ही होता है। अन्त में यह या तो कीड़ों का प्रकार उनका ज्ञान सागर के समान गंभीर और अनन्त था। उनके इस ज्ञानातिशय ढेर बन जाता है या राख का ढेर बन जाता है अथवा हड्डी और चमड़ा मात्र रह को सुनकर आज कल के क्षुद्र बुद्धि वाले मनुष्यों को अपने ज्ञान का गर्व नहीं करना जाता है। ऐसे शरीर में रूप का मद करने का क्या कारण है।
चाहिये। बल समुदितोऽपि यस्मान्नर क्षणेन विवलत्वमुपयाति।
उपकार के निमित्त दीन मनुष्यों के समान दूसरे लोगों की चापलूसी करके बलहीनोऽपि च बलवान संस्कार वशात् पुनर्भवति ॥८७॥ जो उनका प्रेम प्राप्त किया जाता है, वह सब मिट जाने वाला है। मनुष्य को अपने बल का भीमद नहीं करना चाहिये क्योंकि यह बल, जिसका
माष तुषोपाख्यानं श्रुत पर्याय प्ररूपणां चैव। मनुष्य गर्व करता है, कोई स्थायी वस्तु नहीं है। अच्छे से अच्छा बलवान भी प्रबल
श्रुत्वाऽति विस्मयकर विकरणं स्थूलभद्र मुनेः ॥ ९५॥ रोग आदि के निमित्त से क्षण भर में बलहीन देखा जाता है और बलहीन मनुष्य भी
सम्पर्कोपम सुलभ चरण करण साधकं श्रुतज्ञानम्। वीर्यान्तराय के क्षयोपशम और बलप्रद साधनों से बलशाली देखा जाता है अत: बल
लग्ध्या सर्व मवहर तैनेव मदः कर्थ कार्यः॥१६॥
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