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Our श्री बाचकाचार जी चौपड़ा (महाराष्ट्र) से अध्यात्म धर्म (धम्म आयरन फूलना-सार्थ ) का प्रकाशन हुआ, इस प्रकार सम्यक्दृष्टि का विशेष कथन करते हुए कहा है कि आत्मानुभवी सम्यक् ८ जिससे समाज में स्वाध्याय की रुचि और भावनायें जाग्रत हुई हैं । स्वाध्याय का एक श्रद्धानी ही धर्म के सत् स्वरूप को समझता है । इसे स्पष्ट करते हुए धर्म और अधर्म के । व्यवस्थित क्रम बना है। इसके साथ ही देश के कोने-कोने में दिगम्बर-श्वेताम्बर जैन लक्षणों का विवेचन किया है। श्री गुरु कहते हैं कि अपनी आत्मा का चैतन्य लक्षण स्वभाव तथा जनतर बधु भा लगन पूर्वक इन ग्रथा का स्वाध्याय मनन कर अपन आपका धर्म है, यही संसार से पार लगाने वाला है। इसके विपरीत अधर्म है जिसके पांच लक्षण सौभाग्यशाली समझ रहे हैं। इस साहित्य से देश के लोगों में श्री गुरुदेव को और उनको -चार विकथा. सातव्यसन. आठ मद. आर्त-रौद्रध्यान, अनंतानुबंधी कषाय, इनमें रत ' वाणी को जानने की जिज्ञासायें प्रबल हुईं हैं जो हमारे लिए प्रसन्नता और गौरव का
गाव का होकर जीव पाप कर्मों का बंध करके संसार में जन्म-मरण करता है। अन्य विषयों के विषय है।
? अंतर्गत इस ग्रंथ और टीका में धर्म ध्यान के चार भेद, जिनागम के तीन लिंग, त्रिविध पूज्य श्री महाराज जी ने सन् १९९१-९२ में मौन साधना कर विशेष अनुभव रत्न उपलब्ध किये थे, यह टीकायें भी उसी साधना के अंतर्गत सहज ही लिपिबद्ध हो र आत्मा, सम्यक्ढष्टि की विशेषता, त्रेपन क्रियाओं का वर्णन, जघन्य श्रावक की अठारह गई, जो आज हमारे लिये मार्गदर्शक सिद्ध हो रहीं हैं। सहसाब्दि वर्ष २००० में तीन क्रियाओं का विशद् विश्लेषण, तीन पात्र और चार दान की महिमा का वर्णन स्यादवाद बत्तीसी जी के प्रकाशन के पश्चात् नई शताब्दि वर्ष २००१ के नवप्रभात के प्रारम्भ में पद्धति से किया गया है। पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज द्वारा अनूदित श्री त्रिभंगीसार जी ग्रंथ की अध्यात्म सम्यक्दृष्टि श्रावक दैनिक चर्या में षट् आवश्यक कर्मों का पालन करता है, यह प्रबोध टीका आपको स्वाध्याय हेतु उपलब्ध कराते हुए अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हो। षट् कर्म का विवेचन श्री जिन तारण स्वामी के मौलिक चिंतन और विशेषताओं के रहा है। श्री गुरू तारण स्वामी द्वारा विरचित श्री श्रावकाचार जी ग्रंथ ४६२ गाथाओं में 5 साथ स्पष्ट हुआ है, जो अन्य श्रावकाचारों में नहीं मिलता। यहाँ षट् कर्म के दो भेद किये निबद्ध, आचार मत का ग्रंथ है। द्वादशांग वाणी के बारह अंगों में भी आचारांग नाम का हैं- शुद्ध षट् कर्म और अशुद्ध षट् कर्म, इनके पालनकर्ता, उसका परिणाम आदि विषय एक अंग है, जिसमें चर्या आचरण संबंधी उल्लेख है, तदनुसार ही 'कथितं जिनेन्द्रैः' को क्रम मनन करने योग्य है । इसी प्रसंग में शुद्ध षट्कर्म के अंतर्गत एक मोक्षमार्गी तारण प्रमाण करके श्री गुरू ने अनेकों रहस्य स्पष्ट किये हैं ; और हमारे महान सौभाग्य से पूज्य पंथी श्रावक किस प्रकार देवपूजा करता है ? यह स्पष्ट किया है । इस विधि में पचहत्तर श्री महाराज जी ने इस ग्रंथ की अध्यात्म जागरण टीका करके हम सभी भव्यात्माओं पर गुणों का विवेचन गाथा ३२३ से ३६६ तक है, जो देवपूजा के संबंध में समस्त मिथ्या परम उपकार किया है । टीका ग्रंथ में गाथाओं के हार्द को स्पष्ट कर पूज्य श्री ने यह ग्रंथ भ्रांतियों को ध्वस्त करने वाला है। इसमें देवपूजा का स्वरूप सहज ही स्पष्ट हो गया है। सभी के लिये सहज सरल बना दिया है।
3 'श्रावक चर्या' इस ग्रंथ का मूल प्रतिपाद्य विषय है; इसलिये अव्रती श्रावक की इस ग्रंथ में प्रथम चौदह गाथाओं में सच्चे देव गुरु शास्त्र का स्वरूप बताते हुए चर्या का विशद् विवेचन करके व्रती श्रावक की चर्या के अंतर्गत दर्शन आदि ग्यारह उनकी भक्ति पूर्वक बंदना करके ग्रंथ कहने की प्रतिज्ञा की है कि अव्रत सम्यकदृष्टि के प्रतिमाओं का अपूर्व साधना मय स्वरूप विश्लेषित किया गया है । ग्यारह प्रतिमा और लिये श्रावकाचार ग्रंथ कहूँगा। आगे स्पष्ट किया है कि सम्यक्दृष्टि श्रावक संसार, शरीर, " पांच अणुव्रतों का क्या संबंध है ? यह भी श्री गुरु ने करुणा करके समझाया है । ग्रंथ के भोगों से विरक्त रहता है, उसके जीवन में संसार में परिभ्रमण कराने वाले कारणों का अंतिम चरण में साधु पद में होने वाली वीतराग दशा, साधु चर्या का स्वरूप बताकर यह त्याग हो जाता है । सम्यक्दर्शन के पच्चीस दोषों से रहित सम्यक्दृष्टि श्रावक निर्मल निर्णय दिया है कि सम्यक्दर्शन होने पर ही धर्म का प्रारंभ होता है । सम्यक्दृष्टि अवती सम्यक्त्व का धारी होता है।
श्रावक ही व्रती और महाव्रती होकर विकारों का त्याग करके धर्म शुक्ल ध्यान में लीन