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________________ श्री आवकाचार जी भजन- ६० धन की कमी नहीं है, मिलना वही मिलेगा । जो 'कुछ भी तुमने बोया, वैसा ही सब खिलेगा ।। १. जैसे कर्म किये थे, वैसा ही पा रहे हो । जो कुछ लिया दिया था, वैसा ही खा रहे हो ॥ २. कैसा किया था हमने, यह प्रश्न उठता मन में । सब सामने है देखो, जिनराज के वचन में ॥ ३. तृष्णा व लोभ से अब, जो पाप कर रहे हो । खुद भोगना पड़ेगा, जो कुछ भी धर रहे हो । ४. बाहर की यह विभूति, सब दान से है मिलती । ७. अंतर की जो विभूति, सच्ची श्रद्धा से खिलती ॥ अब चाहते हो तुम क्या, खुद सोच लो यह मन में । जग में तो सुख नहीं है, सुख न मकान धन में ॥ ६. सुख शांति यदि चाहिये, तो भेदज्ञान कर लो । सब लोभ मोह छोड़ो, संतोष मन में धर लो ॥ अपना नहीं है कुछ भी, तुम हो स्वयं अरुपी । क्यों व्यर्थ में भटकते, ज्ञानानन्द स्वरूपी ॥ भजन- ६१ अब मत नाव डुबइयो रे भैया ॥ १. बड़ी मुश्किल से मौका मिलो है, अब मत धोखा खड़यो. २. श्रावक कुल मानुष भव पाया, धर्म शरण अब गहियो. ३. बहुत फिरे चहुंगति दुःख पाये, अपनी बात बनइयो ४. नाव किनारे आ ही गई है, भूल में मत भटकड़यो. तारण गुरु से सद्गुरु पाये, तारण तरण बन जइयो . ६. भेदज्ञान कर निजानन्द मय, ज्ञानानन्द कहइयो .. TYNA YEAR A YEAR AT YEAR. २८६ १. २. ३. ४. ५. ६. आध्यात्मिक भजन भजन- ६२ देखो प्रभु परमात्मा, अपने में तुम रहो। मत देखो पर की ओर अब, मत व्यर्थ भ्रमो तुम ॥ देखो जगत में कोई भी, कुछ भी नहीं अपना । सब द्रव्य भिन्न अपने से, संसार है सपना... तुम हो अरस अरूपी, निराकार निरंजन । शुद्ध बुद्ध ज्ञायक, चैतन्य भव भंजन... देखो..... सब जीव आत्मायें, अपने में हैं स्वतंत्र । कोई किसी का कर्ता नहीं, कोई न परतंत्र ... . देखो..... पुद्गल का परिणमन भी, सब स्वतंत्र निराला । कर्मों का उदय बंध ही है, इसका रखवाला... कर्मों का बंध नाश, प्रभु होता है तुमसे । देखो. जैसी तुम्हारी दृष्टि हो, और भावना उससे देखो...... अपने में रहो शांत, हो कर्मों का सफाया । कुछ भी न रहे बाकी रहे ज्ञानानन्द छाया ... देखो ...... . देखो श्रुत देवता या जिनवाणी के प्रसाद से ही हमें यह ज्ञात | होता है कि पूजने योग्य कौन हैं और क्यों हैं ? तथा उनकी पूजा हमें किस प्रकार की करनी चाहिये इसलिये जिनवाणी भी पूज्य है। अगर शास्त्र न होते तो हम देव के स्वरूप को भी नहीं जान सकते थे, फिर जिनवाणी स्याद्वाद नय गर्भित है । जो भक्ति पूर्वक श्रुत को पूजते हैं वे परमार्थ से जिनदेव को ही पूजते हैं क्योंकि सर्वज्ञ देव ने श्रुत और देव में थोड़ा सा भी भेद नहीं कहा है।
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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