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________________ ७७% ॐ श्री आवकाचार जी वाला दिखाई देता है । २. कर्म के निमित्त से होने वाली नर-नारक आदि पर्यायों में भिन्न-भिन्न स्वरूप दिखाई देता है । ३. शक्ति के अविभाग प्रतिच्छेद (अंश) घटते भी हैं, बढ़ते भी हैं, यह वस्तु स्वभाव है इसलिये वह नित्य-नियत एक रूप दिखाई नहीं देता है । ४. दर्शन ज्ञान आदि अनेक गुणों से विशेष रूप दिखाई देता है । ५. कर्म के निमित्त से होने वाले मोह, राग-द्वेष आदि परिणामों कर सहित वह सुख-दु:ख रूप दिखाई देता है । (गाथांश - १६९) निर्विकल्प होना ही ममल स्वभाव में रहना है, वीतरागी ही निर्विकल्प हो सकता है। जहाँ मोह, राग-द्वेष है वहां वीतरागता है ही नहीं। मोह, राग-द्वेष के अभाव को ही वीतरागता कहते हैं यही ममल स्वभाव धर्म है। विशेष सूत्र - १. भेदज्ञान के अभ्यास से एकत्वपना मिटता है । २. तत्वनिर्णय के अभ्यास से अपनत्वपना मिटता है । ३. पाप-पुण्य के विकल्प प्रक्षालन से कर्तृत्वपना मिटता है । ४. तत्समय की योग्यता के निर्णय से चाह मिटती है । ५. सर्वज्ञ की सर्वज्ञता, क्रमबद्ध पर्याय के निर्णय से लगाव मिटता है तभी वीतरागता आती है, निर्विकल्प दशा होती है, वही ममल स्वभाव में रहना धर्म है। (गाथांश - १७३) सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान होना पुरुषार्थ का जागना है और सम्यक्चारित्र पुरुषार्थ करना है । दर्शनोपयोग का अपने स्वरूप को देखना और उस मय होना ही सम्यक्चारित्र है और यह व्यवहार चारित्र की शुद्धि होने पर ही होता है । द्रव्य संयम बगैर भाव संयम नहीं होता, श्रद्धान ज्ञान अलग बात है, चारित्र में निश्चय-व्यवहार का समन्वय आवश्यक है तभी सम्यक्चारित्र होता है । गाथांश- ३५५) इस प्रकार के अनेकों रहस्य पूज्य श्री ने इस टीका ग्रंथ में स्पष्ट किये हैं। अन्वयार्थ, विशेषार्थ, सम्यक्दृष्टि श्रावक की स्थिति, ज्ञानी साधक की चर्या, साधना के मार्ग में आगे बढ़ने का उपाय तथा साधक, जिज्ञासु के मन में सहज ही उत्पन्न होने वाले प्रश्नों का अपनी भाषा में समाधान करके गूढ रहस्यों को सरलता पूर्वक समझाया है । इस २७ JY GAA YA AYA. सम्पादकीय X प्रकार की रचनायें, टीकायें स्वाध्यायी मुमुक्षु भव्य आत्माओं के लिए विशेष उपलब्धि है। इन टीका ग्रंथों में क्या है ? यह रहस्य तो इनके स्वाध्याय चिंतन-मनन पूर्वक ही जाना जा सकता है। सिद्धांत, सत्य किसी मत पक्ष से बंधा नहीं होता, वह त्रैकालिक सत्य, एकरूप सार्वभौम होता है, जिसका निष्पक्ष दृष्टि से चिंतन करके ही उसे समझा जा सकता है । सामूहिक रूप से इन ग्रंथों का स्वाध्याय मनन करना तथा अपनी दृष्टि आत्मोन्मुखी बनाना, यही इन टीकाओं का यथार्थ सदुपयोग है । पूज्य श्री द्वारा अनूदित यह टीकायें आत्मार्थी जीवों के लिये विशेष देन है और उनका परम उपकार है कि इस विषम पंचम काल में हम सभी भव्यात्माओं के लिए सत्य वस्तु स्वरूप समझने और आत्म कल्याण करने का मार्ग प्रशस्त किया है। श्री श्रावकाचार जी ग्रंथ की प्रस्तुत " अध्यात्म जागरण टीका " का स्वाध्याय चिंतन-मनन करके सभी जीव सत्य धर्म और शुद्ध दृष्टि प्राप्त कर श्रावक की व्रती चर्या मय जीवन बनायें तथा सिद्धि मुक्ति के मार्ग पर चलकर इस दुर्लभ मनुष्य भव को सफल सार्थक करें यही पवित्र भावना है। श्री तारण तरण अध्यात्म प्रचार योजना केन्द्र ६१, मंगलवारा, भोपाल (म. प्र. ) दिनांक - ५.२.२००१ ब्र. बसन्त धर्म चर्चा का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है । भेदज्ञान के द्वारा जानकर जो इसका ध्यान करता है उसको प्रत्यक्ष अनुभूति में आता है कि यह शरीर आदि पुद्गल भिन्न है और मैं चैतन्य लक्षण जीव आत्मा भिन्न हूँ तथा यह कर्म भी मुझसे भिन्न हैं, मैं तो सिद्ध स्वरूपी परम ब्रह्म परमात्मा हूँ ।
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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